'मीडिया' और 'न्यूज', ये दो शब्द कश्मीरी चाचा के कान में बम की तरह फटे!

कश्मीरियत'मीडिया' और 'न्यूज', ये दो शब्द कश्मीरी चाचा के कान में बम की तरह फटे!

रेखा पाल

रेखा पाल एक पेशेवेर पत्रकार हैं. रेखा ने हाल ही में धारा 370 हटने और कोरोना काल के प्रतिबंध कम होने के बाद कश्मीर की यात्रा की है. रेखा ने अपने दिलचस्प अनुभव हिलांश के साथ साझा किए हैं. ये पहली कड़ी है. रेखा पाल की कश्मीर यात्रा की अगली किश्त जल्द हिलांश पर पब्लिश होगी. 

डल के पास उस लकड़ी की दीवारों वाले रेस्त्रां में कश्मीर की पहचान का स्वाद लेना अलहदा सुखन का अहसास करवाने वाला था. कहवा... कमाल का पेय है. कहां से आया होगा ये कश्मीर में! कहवे का तो पता नहीं, लेकिन फिरन के बारे में मैंने जरूर पढ़ा है कि इसे कश्मीर में बादशाह अकबर लेकर आए थे. कश्मीर में फांकामस्ती करने के लिए जरूरी है कि आप सिर्फ शाकाहारी न हों, वरना आप यहां के लजीज गोश्त और अन्य पकवानों का स्वाद ठीक से नहीं ले पाएंगे. सर्द कश्मीर में जिस्म को गर्म रखने के लिए ही गोश्त के पकवानों की भरमार है. एक से बढ़िया एक और उम्दा जतीज पकवान श्रीनगर के कई रेस्त्रां में मिलते हैं.

यहां की आबो-हवा ही ऐसी है कि आप बिना गोश्त खाए हुए, सर्वाइव नहीं कर पाएंगे. कम से कम मैं तो बिल्कुल नहीं. फैज साहब ने कश्मीर उतरने के बाद हमें नाश्ता करवा दिया था और अब हम अपने होटल की ओर बढ़ चले थे. टूरिस्ट के साथ कश्मीरियों का बर्ताव शानदार है. वो जानते हैं कि टूरिज्म चलता रहेगा, तो उनके घरों में चूल्हे जलते रहेंगे. कश्मीर की आय का बड़ा हिस्सा पर्यटन से ही आता है. होटल में दाखिल हुए तो दिल खुश हो गया. होटल के कमरों, लाॅबी और रिसेप्शन की सजावट ऐसी थी, जैसे उसे हमारा ही इंतजार रहा हो. यकीनन ये श्रीनगर शहर की खूबसूरत जगह थी, जिसे मेरे प्रभु ने बुक करवाया था.

कश्मीर में कोई शख्स खूबसूरती को समेटना चाहे, तो उसकी पूरी जिंदगी खप जाएगी. इतनी विविधता, इतनी सुंदरता है कश्मीर की जमीन पर कि इसे सिर्फ कैमरे में समेटने में ही पूरी जिंदगी गुजर जाए. मैंने वहां चिनार के पत्तों की तस्वीरें, पेंटिंग, अखरोट और चिनार की लकड़ियों से बना फर्नीचर देखा, वो सब शानदार था. जगह-जगह खूबसूरत नक्काशीदार गमले थे. हम जब होटल में पहुंचे तो थोड़ा थके हुए थे, लेकिन हम कमरे में बंद होने के लिए तो इतनी दूरी नापकर यहां नहीं पहुंचे थे. हम दोनों फ्रेश होकर वापस कश्मीर की सड़कों को नापने के लिए निकल पड़े.

फैज हमें सबसे पहले निशात गार्डन ले गए. निशात गार्डन डल लेक के ईस्टर्न साइड पर है. इस बाग को साल 1633 में मुगल शासक जहांगीर की पत्नी नूर जहां के बड़े भाई आसिफ खान ने बनवाया था. कश्मीर अपने खूबसूरत बागों के लिए ही भी मशहूर है. निशात बाग बेहद खूबसूरत और टहलने के लिए शांत जगह है. बाग में चेहरे पर कश्मीरियत का रंग लिए जब कोई मुझसे पूछता- ‘मैडम आप कहां से आए हैं?’, तो ऐसा लगता कि जिंदगी से कोई शिकायत कैसे कर सकता है. फिर ख्याल आया ‘पर इन कश्मीरियों को बहुत शिकायते हैं और ये शिकायतें किस-किस से नहीं हैं. उन्हें शिकायत है सियासतदानों से, सेना से, भारतीय मीडिया से और शायद देशवासियों से भी, जो इतने खूबसूरत लोगों से मिलने कश्मीर नहीं आते.’ हां, उन्हें हम सब से ही शिकायत है. ये शिकायत कई जगह सही भी लगती है. जैसा खाका सियासत ने कश्मीर का हमारी आंखों के सामने बुना है, उसे देखकर तो शिकायत होनी ही चाहिए.


कश्मीर की सड़कों पर बागों में आपको 4-5 लोग झुंड में बातें करते हुए आम नजर आ जाएंगे. दूर से देखकर आपको हर दफा लगेगा कि कोई बहस चल रही है, लेकिन आप उनके करीब से गुजरेंगे तो आपको पता चलेगा कि वो लोग मौसम, पर्यटन, व्यापार, परिवार, अपनी रोजी-रोटी और राजनीतिक हालात पर चर्चा कर रहे होते. बाग में जाने के लिए टिकट खरीदना होता है. मेरे प्रभु जितनी देर टिकट खरीदने में मशगूल थे, उतनी देर मैं वहीं बैठे लोगों को गुजरते हुए देख रही थी.अचानक चाय पी रहे एक अकडू से नजर आ रहे चाचा ने मुझे टोका। वो बड़ी गंभीरता से चाय पी रहे थे और मुझे देखते ही बोले- ‘बेटी अभी शादी हुआ आपका?’ मैंने सहमति जताते हुए सिर हिला दिया. वो मुझसे बोले- ‘चलो अच्छा है, तुम लोग घूमने आए. हमारे कश्मीर को तो सियासतदानों ने बर्बाद कर दिया है. घाटी की खूबसूरती तो ऊपर वाले की इनायत है, हमारे पेट भरने का जरिया यही है... पर लगता है कि ये लोग हमें ये भी नहीं करने देंगे!’ चाचा बड़े दिलचस्प थे तो बातों का सिलसिला शुरू हो गया. उन्होंने असल में मेरे हाथों में चूड़ा देखकर जाना था कि मेरी अभी शादी हुई है. शादी हुई है तो उसके सुबूत भी मौजूद थे... चूड़ा, बिंदी, सिंदूर! आह! हिन्दुस्तान में पहचान कितनी आसान है.

खैर मैं चाचा से गुफ्तगू करने लगी. उन्होंने बेहद उदास लहजे में कहा- ‘लोग डरा दिए हैं, ताकि कोई कश्मीर ही ना आए. बेटी, इन लोगों ने हाथ-पैर बांध दिए हैं हमारे, जब मन करता है शहर बंद कर देते हैं. भला ये भी कोई बात हुई. जब चाहे खोल देते हैं, हमारा बच्चा लोग कैसे बड़ा आदमी बनेगा. खुद के बच्चे तो विदेश में पढ़ाए, अनाप-शनाप दौलत जुटाई, लेकिन हम लोगों को कैद कर दिया है. देखो, अभी कोरोना का नाटक करता है सरकार...’ चाचा अपना दुखड़ा जाहिर ही कर रहे थे कि मैंने टोकते हुए कहा- ‘नहीं चाचा जी, कोरोना ने वाकई में पूरी दुनिया में तबाही मचा कर रखी है. बहुत लोग मर गए हैं. आप देखते नहीं क्या टीवी में न्यूज.’ मैंने शायद गलत नब्ज छेड़ दी थी. मीडिया और न्यूज, ये दो शब्द चाचा के कान में बम की तरह फटे.

चाचा जो अब तक गंभीर दिख रहे थे, एकदम तमतमा गए और बोले- ‘ये टीवी वाला कुछ भी दिखाता है. सारा नाटक यही लोग करता है. हमें उन लोगों पर बिल्कुल विश्वास नहीं है. हमें आतंकवादी बताता है ये लोग. आप ही बताओं मैं आंतकवादी दिखता हूं क्या?’. चाचा का इतना कहते ही पास से सेना की कुछ गाड़ियां निकली। चाचा अपने आप ही बोल पड़े- ‘देखो, फिर ये लोग किसी को पकड़ेगा, मारेगा, जेल में डालेगा और आतंकी कहेगा.’ चाचा के ये शब्द मुझे गहरे तक चुभे थे. कश्मीर में फौज और आम लोगों के बीच संघर्ष की कई कहानियां मैंने बचपन से अब तक पढ़ी हैं. कश्मीर दुनिया का वो हिस्सा है, जो कभी चैन से नहीं बैठा. टीवी रिपोटर््स और अखबार आए दिन कश्मीर में हिंसा और संघर्षों की खबर से पटे रहते हैं, ऐसे में चाचा का गुस्सा अपनी जगह ठीक था, लेकिन ठीक इसके उलट मैं अपने पिता के बारे में सोच रही थी, जिन्होंने भारतीय सेना में ही अपनी जवानी गुजार दी थी. वो तो कश्मीर में लोगों की रक्षा के लिए मुस्तैद थे. 

मैं उस वक्त चाचा को चुप करवा देना चाहती थी. मैं उनसे कहना चाहती थी- ‘फौज तो आप लोगों की रक्षा के लिए ही है. आप ऐसा क्यों बोल रहे हैं. मेरे पापा भी इंडियन आर्मी में थे. उन्होंने अपनी जिंदगी के सबसे कीमती वक्त कश्मीर में गुजारे या फिर भारतीय सरहद पर. वो सब आपके अच्छे के बारे में सोचते हैं’. मैं ये सब चाचा को बता देना चाहती थी, लेकिन चाचा ने मौन मुस्कान देते हुए कहा- ‘बेटी तुम्हें कुछ भी नहीं पता. दिल्ली में जिसकी हुकूमत है, कश्मीर में उसी की सरपरस्ती में सरकार है. सब उन्हीं लोगों के इशारे पर चलता है. सब आपस में जुड़े हुए हैं. ये एक मकड़ी के जाले जैसा है, जहां एक से दूसरा लिंक जुड़ता चला जाता है. ये लोग....’ चाचा अपनी बात रख ही रहे थे कि तभी पीछे से मेरे प्रभु की तेज आवाज सुनाई दी. वो हाथ में टिकट लिए गार्डन के अंदर फेरी लगाने के लिए जोर लगा रहे थे.

मेरे पास इस गुफ्तगू को यहीं विराम देकर आगे बढ़ जाने के अलावा कोई दूसरा जरिया नहीं था. मैं चाचा को अलविदा कहकर निकल गई. आप इस बातचीत के जो भी निहितार्थ निकालें, लेकिन मेरे लिए चाचा की बातों में दम था, सच्चाई थी. चाचा की बातों से एक बात तो साफ थी कि आम कश्मीरियों में दिल्ली के मीडिया की छवि कतई सकारात्मक नहीं है. दिल्ली की मीडिया पिछले कुछ सालों में जितनी एक्सपोज हुई है, उतना शायद पहले कभी नहीं हुई होगी. निशात गार्डन के एंट्री प्वाइंट में ही मैंने आह भर ली. मैंने अपने कैमरे में सब कुछ कैद कर लिया था... मैं बाग में जाकर उस बर्फ की चादर पर लेट गई, जिसके लिए मैंने लंबा इंतजार किया था. 

ऐसा लग रहा था, जैसे मैं इन वादियों को अपनी जेबों में भर लूं. मैं ताउम्र शायद ही कश्मीर को भुला पाऊंगी. मैंने गौर किया कि एक छोटा लड़का हाथ में झाड़ू लिए हुए मुझे देखकर मुस्कुरा रहा है. मैंने उससे बेहद आत्मीय होकर कहा कि ‘आओ तुम भी फोटो खिंचवाओ मेरे साथ!’ वो मानों इसी वक्त के इंतजार में वहां हो, वो मुस्कुराकर मेरे पास बैठ गया. मैंने उससे तमाम सवाल पूछे. मैंने उसे लाड-दुलार किया पर वो कुछ नहीं बोला. वो बस मुस्कुरा देता, मानों उसे कुछ कहना ही न हो. बड़ी मशक्कत के बाद उसने अपना नाम बताया, उसके होंठो पर फूटा- ‘रहीम’ और फिर वो अपने दोस्तों के साथ वहां से चला गया. मैं कुछ देर उस लड़के के बारे में ही सोचती रही. उसके पिता या मां शायद बाग के माली हों... क्या मालूम किसका बेटा था. 


निशात बाग की खूबसूरती के बारे में एक किस्सा मशहूर है कि मुगल बादशाह शाहजहां बाग की खूबसूरती देखकर मंत्रमुग्ध हो गया था और एक दफा आसिफ खान से नाराजगी के चलते उसने बाग में पानी की व्यवस्था को खत्म करवा दिया था. हालांकि, बाद में पानी की व्यवस्था शुरू भी शाहजहां ने ही करवाई. बाग का डिजाइन पर्सियन गार्डन की तरह है. इस बाग में कई किस्म के फूल हैं. बाग को इस ढंग से डिजाइन किया गया है कि पानी, बाग के हर हिस्से तक पहुंचे.

इसके बाद हमारा काफिला शालीमार बाग के लिए निकला. रास्ते में फैज साहब से बातों का सिलसिला भी चलता रहा. फैज लंबे समय से कश्मीर में पर्यटकों को घुमा रहे हैं. वो अक्सर अपनी गाड़ी के पास ही रहते. फैज असल में एक नौजवान हैं, जिनकी उम्र 31 साल है. फैज पहले सरकारी नौकरी करने का इच्छुक था, लेकिन नौकरियों की मारामारी ने ये ख्याल पलट दिया. फैज ने करीब पांच साल पहले टैक्सी चलाना शुरू किया और अब यही उसका पेशा है. कश्मीर के बहुत से नौजवान उम्मीद से पर्यटकों को देखता है. बातों के सिलसिले के बीच ही हम शालीमार बाग पहुंच चुके थे. शालीमार बाग का अपना इतिहास है, जिसकी जड़ें इतिहास में 16 वीं सदी में जाती हैं.

जहांगीर ने अपनी बेगम नूरजहां को खुश करने के लिए मौजूदा शालीमार गार्डन को बनवाया था, लेकिन इससे भी पुराना इतिहास इस बाग का रहा है. कहते हैं, ये बाग जहांगीर का ड्रीम प्रोजेक्ट था. हमज ब शालीमार बाग पहुंचे, उस वक्त यहां भी बर्फ की चादर बिछी हुई थी. एक किस्म की खामोशी पसरी हुई थी, जो अक्सर बर्फवारी के बाद पहाड़ों पर पसर जाती है. हम फैज को बाहर छोड़कर बाग की ओर बढ़ गए. प्रभु मुहब्बत में बाग-बाग घूम रहे थे और मैं कश्मीर के प्यार में डूबी हुई थी. ये दो लोगों का नजरिया था, उनकी चाहतें थी.

फिरन जो कि कश्मीरी लिबास है, लोग उसे पहने हुए टहल रहे थे. फिरन ही था जो कश्मीरियों और गैर कश्मीरियों के बीच था. मैंने गौर किया कि लोग मेरे हाथों में भरी चूड़ियां देखकर मुस्कुरा रहे हैं. वो मुझसे कहते- ‘कश्मीर अपनी बेटी का वेलकम करता है. जी भर के घूमिए. आपको यहां कोई दिक्कत नहीं होगी.’ वाकई मुझे कोई दिक्कत नहीं हुई और लोग जितनी आत्मीयता से मुझसे मिलते, मेरे कई पूर्वाग्रह खत्म होते जाते. कश्मीरी शांत और खुशमिजाज लोग हैं, जिनको पर्यटकों को लुभाना आता है. शालीमार गार्डन के बाद हम चश्माशाही की ओर बढ़ गए. ये भी एक मुगल गार्डन है. यहां एक छोटा मंदिर भी है. कश्मीर में शायद ही कोई जगह छूटी थी, जहां बर्फ नजर ना आ रही हो. हर एक पत्ते-पत्ते और बूटे-बूटे पर कुदरत ने सफेद चादर बिछाई थी. मानों आसमान से कई टन रुई बिखेरी गई हो. कश्मीर की शामें बेहद ठंडी हो जाती हैं और ये वक्त तो था ही सर्दियों का.

चश्माशाही गार्डन में घुसते ही एक कश्मीरी युवक मिला, जो वहीं पर लोगों की फोटो खींचता और उसे 50 रुपये में प्रोसेस कर अपने ग्राहकों को दे देता. हिन्दुस्तान के कई शहरों खासकर पर्यटक स्थल पर इस तरह से फोटोग्राफर मौजूद रहते हैं, हालांकि तकनीक ने इन लोगों का काम काफी हद तक खत्म ही कर दिया है. वो हमसे फोटो खिंचवाने की जिद करने लगा. वो इतनी फर्राटे से इंग्लिश बोल रहा था, मानों दिल्ली में किसी फर्म का सेल्समैन हो. वो दिलचस्प किरदार था. बातों-बातों में मुझे पता चला कि वो दिल्ली में जेएनयू के पास ही रहता है और कोरोनाकाल में ही कश्मीर लौटकर आया है. उस शख्स का नाम था जुनैद.

जुनैद दिल्ली के एक न्यूजपेपर में इंटर्नशिप कर रहा था, लेकिन कोरोनाकाल में उसकी इंटर्नशिप बंद हो गई और उसे वापस लौटना पड़ा. जुनैद की कहानी ने मुझे उत्साहित किया और मैंने उससे एक फोटो खिंचवा ली. फोटोज क्लिक करवाने के बाद मैंने जुनैद से पूछा कि ‘तुम्हें पैसे कमाने में दिक्कत तो हो रही होगी?’ लेकिन जुनैद का जवाब मेरे सवाल के एकदम उलट था. उसने मुझसे कहा- ‘नहीं, मैम मैं यहां खुश हूं. अपने परिवार के साथ हूं और वहां से ज्यादा यहां कमा रहा हूं.’ उसने मुझे बताया कि वो कुछ घंटे ही फोटोग्राफी करता है और फिर अपने खानदानी काम में हाथ बंटवाता है। जुनैद पैसा कमाने के लिए फोटोग्राफी के अलावा कालीन बेचने और ड्राई-फ्रूट के छोटे से कारोबार में भी शामिल था. मैंने उससे कहा कि वो मुझे भी कुछ काम दे दे, ताकि मैं कश्मीर में ही रह सकूं... वो जोर-जोर से हंसने लगा, फिर हम सब हंसने लगे. मेरे प्रभु भी... जो सिर्फ बातचीत को सुनते. मैंने जुनैद का नंबर लिया और उससे वादा लिया कि वो जब भी दिल्ली आए तो हमसे जरूर मिले.

मैं और मेरे प्रभु आगे बढ़ गए. हम शादी के बाद कश्मीर पहुंचे थे और इसे हमें यादगार बनाना था. अक्सर ऐसा ही होता है. जोड़े अपनी हर यात्रा को अमर बना देना चाहते हैं, लिहाजा हमने भी एक दूसरे पर बर्फ के गोले दागे... ठहाके लगाए और वापस होटल लौट आए. कश्मीर में तफरीह का ये हमारा पहला दिन था. मुझे प्रभु को समझना था और प्रभु को मुझे, ताकि हम भी अपनी यादगार कहानी लिख सकें... बाग बनवाना तो महंगा पड़ जाएगा. हम थककर चूर थे और इस यादगार दिन की बातें करते हुए कश्मीर की रात का लुत्फ ले रहे थे...

जारी है...

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