'डेढ़ साल में आप मेरी दूसरी ग्राहक हैं दीदी!'

कश्मीरियत 'डेढ़ साल में आप मेरी दूसरी ग्राहक हैं दीदी!'

रेखा पाल

रेखा पाल एक पेशेवेर पत्रकार हैं. रेखा ने हाल ही में धारा 370 हटने और कोरोना काल के प्रतिबंध कम होने के बाद कश्मीर की यात्रा की है. रेखा ने अपने दिलचस्प अनुभव हिलांश के साथ साझा किए हैं. ये पहली कड़ी है. रेखा पाल की कश्मीर यात्रा की अगली किश्त जल्द हिलांश पर पब्लिश होगी. 

मैं घुम्मकड़, अल्हड़ और जिद्दी किस्म की लड़की रही हूँ. मेरी जब शादी हुई, तब मैंने लड़के पर यही वाला फॉर्मूला लागू किया- ‘कायदे में रहोगे तो फायदे में रहोगे’. ये सबसे कारगर फॉर्मूला है. या यूं समझ लीजिए कि ये तुरुप का इक्का है. मेरी शादी हाल ही में हुई है. मेरे आस-पास मौजूद लोगों ने घूमने के लिए हमें खूब सारे ऑप्शन दिए, लेकिन हम निकल पाते इससे पहले ही कोरोना ने भारत को बंद कर दिया था. सड़कों पर सिर्फ वही लोग नजर आ रहे थे, जिनके पास शहरों से निकलने के अलावा और कोई चारा नहीं रह गया था. भारत में कोरोना फ्रंटलाइन पर खेल रहा था और लोग दहशत में थे. खासकर दिल्ली जैसे शहर में कोरोना का खौफ काफी दिनों तक रहा.

कोई मुझसे पूछे तो मेरी ख्वाहिश हमेशा कश्मीर घूमने की ही रही. मेरा नाता एक आर्मी परिवार से है. कश्मीर का जिक्र जितना हमारे घरों में बच्चों ने सुना है, उतना शायद ही किसी दूसरे घर में बच्चे भारत के इस हिस्से के बारे में सुनते होंगे. ये चर्चाएं उन दिनों और बढ़ जाती हैं, जब परिवार का कोई सदस्य कश्मीर में तैनाती दे रहा हो. कई दफा ये जगह फौजियों के परिवार के लिए भयानक सदमें जैसी सूचनाएं भेजता है. कश्मीर को लेकर एक अलग सा डर बुना गया है, मानों वहां का हर शख्स कंधे पर बंदूक लटकाए हुए लोगों के आने का इंतजार कर रहा हो. मानों वहां का हर शख्स पाकिस्तान से मिला हुआ हो... कुछ ऐसी ही परवरिश भारत के उन हिस्सों के लोग अपने बच्चों की करते हैं, जो कश्मीर को नहीं जानते.

मैं बहुत पहले ही कश्मीर चले जाना चाहती थी, लेकिन दोस्तों ने कभी जाने ही नहीं दिया, इसलिए जन्नत-ए-कश्मीर घूमने का फैसला इस दफा पक्के तौर पर कर लिया. मेरी शादी हुई थी, कोरोना खत्म हो गया था या फिर खतरनाक स्तर से नीचे आ गया था और सबसे बड़ी वजह कश्मीर में धारा 370 हटी थी, जिसके बाद से ही कश्मीरियों पर कई प्रतिबंध बिठा दिए गए थे. ये सोचना ही खतरनाक है कि बिना इंटरनेट के जिंदगी चलाई जा सकती है. सरकार ने सुनियोजित ढंग से धारा 370 हटाई थी, जिसका व्यापक पैमाने पर अब भी विरोध चल रहा है. धारा 370 हटने के बाद उपजे राजनीतिक संकट और लोगों की मनोस्थिति का जायजा लेने के लिए बतौर पत्रकार मैं उत्साहित थी.

मैं लोगों की जिदंगियों को करीब से देखना चाहती थी. मेरे फोन में 2 घंटे नेटवर्क नहीं रहता, तो मुझे बेबसी सी महसूस होती है. ये सोचना ही खतरनाक है कि कश्मीर के लोगों के मोबाइल तकरीबन 2 सालों से 2 जी नेटवर्क के सहारे सांस ले रहे हैं. ऐसा हमारे साथ हो, जैसा कि चल रहा है तब आप अंदाजा लगाइए कि ये कैसा लोकतंत्र है, जहां लोगों की आवाजें ही दबा दी जाती है. भारत अपने नागरिकों का इंटरनेट बंद करने में दुनिया में अव्वल देशों में शुमार है, जो कि एक बुरी स्थिति है.

कश्मीर के लोग कैसे इन मुश्किलों का सामना करते होंगे? कोरोना की दस्तक के बाद तीन महीने के लॉकडाउन ने पहले से हिली हुई अर्थव्यवस्था को बदत्तर स्थिति में पहुंचा दिया, ऐसे में जो कश्मीर सालों से ऐसी स्थितियों से गुजर रहा है वहां के नागरिकों की स्थिति कितनी भयानक हो सकती है! वो कैसे खाते-कमाते होंगे? क्या बच्चों को पढ़ाते होंगे? हम भारतीयों ने बिना इन सवालों के हल तलाशे ही मजे-मजे में घाटी की जमीनें खरीदने तक का फैसला कर लिया था. ये हाल तब थे, जब भारत में रोजगार का संकट अभूतपूर्व स्थिति में पहुंच चुका है. बेरोजगार देश के अलग-अलग हिस्सों में रोजगार के लिए लड़ रहे हैं.

फैसला हो चुका था और मैं कश्मीर जाने के लिए तैयारियां कर रही थी। भारतीय परिवार कहते हैं कि ‘अच्छी लड़कियां घूमने नहीं जाती, वो अपने घर को मंदिर और पति को ही भगवान मानती हैं!’ मैंने भी यह सुना था और इसका जवाब देने के लिए मैं अपने प्रभु के साथ कश्मीर यात्रा पर निकल रही थी. एकदम भारतीय नारी.. हाथों में चूड़ा, माथे पर बड़ा वाला लाल टीका और सिंदूर भरी मांग के साथ कश्मीर की रवानगी शुरू हुई. रवानगी से पहले टीवी चैनलों के दिमाग में कूट-कूट कर भरे हुए शब्द ‘आतंक, खतरा, पाकिस्तान और जिहादी’ कौंधने लगे. हालांकि, मुझसे ज्यादा तो मेरे ‘प्रभु’ डरे हुए थे. खैर सांत्वना देना मेरा दायित्व था, सो मैंने दे दिया. इस बीच हमने घूमने के दिन, ड्राइवर, जगह और होटल सब फिक्स कर लिए थे.

कश्मीर में लैंड करते ही मेरा फोन किसी काम का नहीं रह जाने वाला था, क्योंकि वहां प्रीपेड सर्विस काम ही नहीं करती है. ऐसा सुरक्षा का हवाला देते हुए किया गया है. सुबह 8 बजे हम अहमदाबाद से निकले और ठीक 11 बजे कश्मीर के आसमानी बॉर्डर पर दस्तक दी तो दिल धक्क से बोल गया. मैं खिड़की से उस जमीन को देख रही थी, जिसका बस जिक्र सुना था. सब ठहर सा गया था. सब शांत था. नीचे ऐसी बेपनाह खूबसूरती थी जो शब्दों में बयां ही नहीं की जा सकती. मैं बस कश्मीर को ताक रही थी। मैंने सोचा भाड़ में गई एयर-होस्टेस, भाड़ में गए क्रू मेंबर्स, जिनका पिछले 3 घंटों से मैं मेकअप और हेयरस्टाइल ही देख रही थी...

मैं मन ही मन बस ये सोच रही थी- ‘आय-हाय बेइंतहा खूबसूरती!’ सीना ताने खड़े पहाड़ों पर लिपटी बर्फ ऐसे लग रही है, जैसे सफेद चादर ओढ़ा दी हो. पेड़ों के गाढ़े-हल्के हरे पत्ते अपना अलग ही रंग बिखेर रहे हैं. जन्नत अपने शबाब पर है और मानों जन्नत की नदियों ने इस हुस्न में चार चांद लगा दिए हों. विशालकाय झीलें, नदियों में बहता नीला पानी, रंग-बिरंगे फूलों से गुलजार बगीचे, सब कुछ कल्पनाओं जैसा लग रहा था. ऐसा लग रहा था मानों जैसे इनको समेट कर घर ले जाउंगी. जहाज हवा से जमीन पर कब उतरा इस बीच पता ही नहीं चला.

श्रीनगर एयरपोर्ट पर हमारे ड्राइवर फैज साहब पिछले 2 घंटों से हमारा इंतजार कर रहे थे. कोरोना के चलते बहुत सी व्यावहारिक दिक्कतें बढ़ गई थी। एयरपोर्ट पर यात्रियों का कोरोना टेस्ट किया जा रहा था और उसी के बाद कश्मीर की जमीन पर टहलने की इजाजत दी जा रही थी. ये बेहद उबाउ था. इतनी सारी फॉर्मेलिटीज पूरी करने जो झुंझलाहट हो रही थी वो बताना ही कष्टकारी है. एयरपोर्ट पर उतरते ही दुनिया बदल सी गई थी. लोग फेरन पहने हुए नजर आ रहे थे. हम नॉर्थ इंडियन की चमड़ी उन लोगों के बीच अलग ही चमक रही थी. गोरे चिट्टे कश्मीरी जब अपनी जुबान में कहते हैं- ‘मैडम जन्नत-ए-कश्मीर में आपका स्वागत है’, तब ऐसा लगता है मानो ये वाला डायलॉग दिल चीर कर रख देने के लिए कहा जा रहा हो. कश्मीर के बारे में जो भ्रम था, उसकी यहां से धज्जियां उड़नी शुरू हो जाती हैं. बचपन से सिर्फ कश्मीर को ऐसे देखा है मानों वहां आंतक के सिवाय कुछ हो ही ना! 

खैर, फैज ने हमारा सामान उठाया और गाड़ी की तरफ बढ़ चले. मैं कई इलाकों में घूमी हूं, लेकिन मुझे घाटी में ही पहली मर्तबा ऐसा पुलिसकर्मी मिला जिसने कहा- ‘वेलकम टू द फील्ड सर,  एन्जॉय कीजिए मैम. कोई दिक्कत-परेशानी हो तो हम आपकी खिदमत के लिए हाजिर हैं.’ मैं अचंभित थी! क्या ऐसा इसलिए है क्योंकि कश्मीर की छवि दागदार बनाई गई है या फिर ये छवि सुधारने के लिए कर्मचारियों को दिए गए निर्देश हैं. ख्जो भी हो ये लाइन सुनकर ही दिल गार्डन-गार्डन हो गया और मैंने पलटकर कहा- ‘शुक्रिया जनाब’. बाहर निकलते ही आंखों में तीखी धूप लगने लगी थी. जैसै-जैसे फैज साहब गाड़ी की रफ्तार बढ़ाते चले गए, ठंडी हवाएं कार के भीतर से गुजरने लगी. मैंने भारत के किसी भी हिस्से में या फिर किसी भी शहर में एयरपोर्ट से लेकर मुख्य शहर तक इतनी टाइट सिक्योरिटी नहीं देखी है. जम्मू-कश्मीर पुलिस, सीआरपीएफ और आर्मी के जवान सड़कों पर हर उस जगह मौजूद थे, जहां नजरें जा रही थी.

अचानक मेरा ध्यान फैज के पूछने से टूटा, उन्होंने कहा- ‘दीदी सफर कैसा रहा’. मैंने भी तपाक से कहा- ‘वो सब तो ठीक रहा आप ये बताइए कि ऐसी सिक्योरिटी क्या 370 हटने के बाद से लगनी शुरु हुई है? फैज साहब मानों इसी सवाल के इंतजार में बैठे हों और उन्होंने बड़े आराम से कहा- ‘नहीं दीदी, ये कश्मीर है. यहां क्या 370, क्या कोरोना, क्या महामारी... यहां तो हमेशा ही ऐसे ही रहता है. हमें तो आदत है ऐसे रहने की, बाकी न जाने ये मीडिया वाले अपनी मर्जी से क्या-क्या दिखाते रहते हैं. कुछ भी बकते हैं ये लोग. हमारा पूरा टूरिज्म ठप्प पड़ गया है. कश्मीर की आधी बर्बादी तो मीडिया वालों ने ही की है.’ फैज साहब ने एक झटके में अपना दुखड़ा रो दिया था। शायद जो तस्वीरें मैंने एयरपोर्ट से शहर तक जाने के बीच देखी हैं, उन्हीं को देखकर हिन्दुस्तानी कश्मीर आने से कतराते हों.

कसम से मैंने अपने मन में ही संकल्प कर लिया था कि मैं फैज साहब को नहीं बताने वाली कि मैं किसी टीवी चैनल मैं काम करती हूं. फैज साहब दिल खोलकर बातें करें, इसके लिए जरूरी था कि उन्हें न बताया जाए कि मैं असल में एक टीवी पत्रकार ही हूं. मेरा पार्टनर अपने बिजनेस और फोन मीटिंग्स में ही उलझा रहता है, जबकि मैं बातूनी हूं. मेरा पेशा ही ऐसा है. 

मैं कुछ सोच ही रही थी कि फैज साहब ने कहा- ‘दीदी डेढ़ साल में आप लोग मेरे दूसरे कस्टमर हो. 370 तो नेताओं के चोचले हैं, हम तो तब भी वैसे ही थे और आज भी वैसे ही हैं. पर इस लॉकडाउन ने तो पैसे-पैसे के लिए मोहताज कर दिया.’ फैज के शब्द उस अर्थव्यवस्था पर चोट करने के लिए प्र्याप्त थे, जिनमें दावा किया जा रहा है कि भारत की अर्थव्यवस्था चंगी है. इस मुल्क में इतना ज्यादा प्रोपेगेंडा परोसा गया है कि सच और झूठ के बीच का महीन फासला भी गायब सा हो गया है.

गाड़ी कश्मीर की सड़कों पर सरपट दौड़ रही थी. पल भर में अचानक सन्नाटा सा छा गया और पलक झपकते ही सन्नाटे को चीरती हुई हवा ने माहौल बदल डाला. कश्मीर की हवाएं जब आपके चेहरे को चूमती हुई गुजरती हैं, तब आपकी नाक लाल हो जाती है. कश्मीर के अलग-अलग गांवों से गुजरते हुए मैं उसकी खूबसूरती की मुरीद हो चुकी थी. एक पल भी आंख बंद करने का ख्याल पहीं आया. मैं टैक्सी की खिड़की से लगातार बाहर झांक रही थी. चप्पे-चप्पे पर आर्मी और सीआरपीएफ के जवान चील की निगाह लिए निगरानी करते हुए नजर आ रहे थे. एक सेकेंड के लिए लगता है कि कितनी महफूज है ये घाटी, लेकिन दूसरे ही सेकेंड आपको दीवारों पर कुछ पोस्टर्स नजर आ जाएंगे, जो आपको डराने के लिए पर्याप्त है. असल में दीवारों पर लगे ये पोस्टर्स उन लोगों के हैं, जो सरकारी रिकाॅर्ड में बतौर आतंकी दर्ज हैं. यकीन मानिए वो बिल्कुल आम कश्मीरियों की तरह थे... वो खौफनाक कम और आस-पास घूम रहे लोग ज्यादा नजर आ रहे थे. 

हमारी गाड़ी डल लेक का चक्कर लगा रही थी, जिसके किनारे पूरा श्रीनगर बसा हुआ है. झील किनारे मेरा मन कहवा पीने का हुआ तो मैंने फैज साहब से रुकने के लिए पूछा. उनका जवाब था- ‘दीदी मैं कहीं भी गाड़ी नहीं रोक सकता, कल को खुदा ना खास्ता आपको और भाईजान को कुछ हो गया तो पुलिस मुझे उठाकर ले जाएगी. मैं आपको सेफ जगह ही कहवा और नाश्ता करवाता हूं.’ 

आखिरकार फैज साहब हमें एक ढाबे पर लेकर गए, जो रेस्त्रां ज्यादा नजर आता है. मैं डल को निहार रही थी. इतने में ड्राई फ्रूट्स के साथ कहवा हमारी मेज पर पहुंच गया. कहवे का पहला घूंट मेरे कश्मीर में उतरने के जश्न सरीखे था. मैं कुछ देर के लिए बस यहीं की हो जाना चाहती थी... डल की लड़की, कश्मीर की लड़की...

(जारी है...)

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