गोविंद पंत राजू साहब की पत्रकारिता की यात्रा 25 से भी ज्यादा साल पुरानी है। उनके लेखन का सफर पहाड़ों से मैदानों तक रहा है। साल 1991-92 के ग्यारहवें भारतीय अंटार्कटिका अभियान दल में उन्हें कला और मानविकी के क्षेत्र से शामिल होने और अंटार्कटिका की यात्रा करने का मौका मिला। इस उपलब्धि के साथ वो भारत की ओर से अंटार्कटिका की यात्रा करने वाले पहले भारतीय पत्रकार भी बन गये। राजू साहब ने लंबे समय तक 'आज तक' के साथ काम किया है।‘ ‘हिलांश’ पर उनकी श्रृंखला ‘अंटार्कटिका’ को पेश करते हुए हमें खुशी हो रही है।
(भाग-5) अंटार्कटिका में सालों पहले बंद हो चुके दक्षिण गंगोत्री स्टेशन से वापस अपने केबिन में पहुंचना अभी हमारे लिये किसी जंग को आधी जीत लेने जैसा ही था। हमने सबसे पहले डीजी स्टेशन से लायी गयी चीजों की डेट ऑफ मैनुफैक्चरिंग देखी। इनमें ज्यादातर चीजे अगस्त से अक्टूबर 1988 के बीच की बनी हुई थीं। चपाती का एक पैकेट जनवरी 1988 का था। नमक, मिल्क पाउडर और कोल्डड्रिंक के अलावा सभी चीजें डीआरडीओ की डिफेंस फ़ूड लेबोरेट्री मैसूर की बनी हुई थी, क्योंकि अंटार्कटिका में सामान्यतः बैक्टीरिया नहीं पाए जाते। हम जिस जगह से ये चीजें लाये थे वहां का तापमान प्रायः शून्य से कम ही रहता था, इसलिए हम इन चीजों को खाने से डर नहीं रहे थे।
हालांकि, यह तर्क हमारी खुद की संतुष्टि का एक बहाना भर था, क्योंकि इन्हें न खाने का विकल्प तो हमारे पास था ही नहीं। इस सामान के आ जाने से हमारी निराशा भी कम हो गयी और हमारे मनोबल पर भी इसका सकारात्मक असर हुआ। हमें अब यह उम्मीद हो गयी थी कि अब हम अधिक तैयारी से डीजी के अंदर जाकर अपने खाने के लिए कुछ और चीजें तलाश सकते हैं। मगर अभी भी हम इन चीजों को पूरी तरह से सुरक्षित नहीं मान सकते थे और इस बात का खतरा था कि इनको खाने से कहीं हम बर्फ के इस वीराने में फूड पॉइजनिंग का शिकार न हो जायें।
हमने तय किया कि आज हममें से सिर्फ एक इसे खायेगा। मगर वो एक कौन होगा? इसे लेकर ही असल समस्या भी शुरु हो गयी, क्योंकि हम तीनो में से कोई भी पीछे हटने को तैयार नहीं था। दो दिन के बाद यह मौका आया था कि हम शाम को खाना खा सकते थे, इसलिए कोई भी इस मौके को गंवाना नहीं चाहता था। अंततः यह तय हुआ कि लाटरी निकाल कर फैसला किया जाए। मगर इस पर भी सहमति नहीं बन सकी। आखिरकार हम तीनों लोगों ने दाल और चार पतली चपातियों को बराबर बांट कर खा लिया। अब हमें सुबह का इन्तजार था। हमें यह देखने की जल्दी थी कि कहीं इस खाने का हमारी सेहत पर बुरा असर तो नहीं हुआ। इसको लेकर हम तीनों के ही मन में तरह-तरह की आशंकाए भी होने लगी थीं। पूरी रात हम सुबह होने के इंतजार में ही काट गये। धीरे-धीरे, पहर दर पहर रात कट गई और फिर वो सुबह भी आई जिसका हमें इंतजार था।
यह भी पढ़ें: अंटार्कटिका में लॉकडाउन और 224 घंटों की वीरान डरावनी जिंदगी
हम ठीक थे। हममें से किसी को भी कोई दिक्कत नहीं हुई थी। सुबह ने हमारी सभी आशंकाओं को निर्मूल साबित कर दिया। 1988 में पैक्ड फूड जो कि हमने बंद पड़े हुये डीजी स्टेशन के भीतर से 1991 में निकाला था, उसने हमारी जान बचा ली थी। अब हम मिल्क पाउडर से चाय बनाने को बेताब थे। चाय बनी और बर्फ की उस ठंडी सुबह चुस्कियों के साथ हमने फिर से डीजी स्टेशन के अंदर जाने की योजना बनायी।
पिछले दिन के अनुभव से हमें इतना तो समझ में आ गया था कि नीचे कैसे उतरना है। लौटते हुये मैंने स्टोर के पास एक अल्युमीनियम की सीढ़ी देखी थी। मैंने सोचा था कि अगर हम उसे ऊपरी प्लेटफार्म तक ला सके तो उसकी मदद से ऊपर आना बहुत आसान हो जाएगा। नीचे उतरने में तो गांठ बंधी रोप का विकल्प था ही। हमने अपने रकसैक खाली कर लिए थे। फिर हम अपनी चारों टॉर्च, एक कैसेट रिकार्डर, कैमरा और आइस ऐक्स लेकर नीचे उतरने के लिए तैयार हो गए। काफी मुश्किलों के बाद हम स्टेशन के मुख्य भाग में पहुंचने में कामयाब हो गए। अंधेरा और सन्नाटा हमें हताश करता जा रहा था।
इतने दिनों से अंटार्कटिका के कुपित मौसम के शिकंजे में किसी लॉकडाउन की तरह फंसे रहकर हमारी मनो दशा पर बार-बार चरम निराशा का हमला होता रहता था। यहां डीजी स्टेशन के भीतर का भारी वातावरण हमें कमजोर करता जा रहा था। अपनी टार्चों के जरिये हमने सबसे पहले अपने खाने के लिए जरुरी चीजें तलाश की। उस घुप्प अंधेरे डीजी स्टेशन के भीतर अंडे भी थे, लेकिन वे हमारे किसी काम के नहीं थे। कई सालों तक तक शून्य से काफी कम तापमान पर रहने के कारण वे एकदम ठोस हो चुके थे, किसी पत्थर की तरह। ऐसी ही कई तरह की चीजें वहां और भी थी। हमने उसमें से सिर्फ दाल, सूजी हलवा, चपाती, पुलाव, चाय और दूध के कुछ पैकेट अपने बैग्स में भर लिए। जब हमने अपने भोजन का इंतजाम कर लिया, तब उसके बाद हमने स्टेशन के अंदर देखना शुरू किया।
वहां एक शानदार किचन था, जिसके पास ही एक डायनिंग टेबल लगा हुआ था। इस डायनिंग टेबल पर आखिरी बार खाने वाले चार लोगों की प्लेटें पड़ी थी। इन प्लेटों में कुछ बचा हुआ खाना भी था, जो इस बात की तस्दीक करने के लिये काफी था कि आखिरी शाम डीजी स्टेशन में यादगार रही होगी। पास ही एक शानदार आपरेशन थियेटर भी था।
हमने वहां आखिरी बार रहने वाले कुछ लोगों के केबिन भी देखे। प्रायः हर केबिन में लोगों ने कुछ न कुछ यादें छोड़ने की कोशिश की थी। बड़े हाल में एक प्लेबोर्ड पर स्टेशन को छोड़ने की तारीख, कुछ सन्देश और कई लोगों के नाम लिखे हुए थे। इस को पढ़ते हुए हम तीनों ही बेहद भावुक हो गए। वहीं पर बैठ कर हमने अपने रिकार्डर पर अपने सन्देश रिकार्ड किये। इसका मकसद यह था कि यदि हम इस तूफ़ान के शिकंजे से बच नहीं पाए, तो हमारी यह रिकार्डेड बातें हमारे परिजनो और मित्रों तक हमारे आखिरी शब्दों के रूप में पहुंच सके।
यह भी पढ़ें : ‘हमारे उपकरणों ने सिग्नल देना बंद कर दिया, केबिन के चारों ओर बर्फ की दीवार जम गई’
इस सन्देश के लिए हमें दस मिनट में अपनी बात पूरी करनी थी। सबसे पहले कालरा ने अपने माता-पिता के लिए कुछ कहा और यहां फंसे रहने के दौरान परिस्थितियों से अपनी जंग के बारे में कुछ बातें रिकॉर्ड कर ली। इसके बाद फिर जीवा की बारी आयी। जीवा ने अपनी बात अंग्रेजी से शुरू की और फिर वह तेलुगु बोलने लगा और सन्देश के आखिरी हिस्से तक आते-आते वह टूटी-फूटी हिंदी बोलने लगा था। वह इतना भावुक हो गया था कि बोलते हुए वह कई बार रोया भी। असल में थोड़ा बहुत, कम-ज्यादा होने के बावजूद हाल हम तीनों का एक जैसा ही था।
कभी हम यह सोचने लगते कि मैत्री और शिप में मौजूद हमारे साथी हमारे बारे में क्या सोच रहे होंगे? क्या वे हमें बचाने की किसी योजना पर काम कर रहे होंगे या सिर्फ तूफ़ान के ख़त्म हो जाने की प्रतीक्षा कर रहे होंगे। हालांकि, हम यह भी जानते थे कि ऐसे मौसम में न तो हमारे हेलीकाप्टर ही उड़ान भर सकते और न ही किसी अन्य तरीके से हमें मदद पहुंचाई जा सकती थी। कभी हम खुद को इस बात के लिए तैयार करते थे कि जरा सा भी मौसम ठीक होते ही, हम यहां से पैदल ही अपने शिप की ओर चल पड़ेंगे और किसी न किसी तरह वहां पहुंचने का प्रयास करेंगे।
हालांकि, हम यह भी अच्छी तरह तरह जानते थे कि इस जानलेवा कोशिश का सफल होना असंभव था। कभी हम यह सोचते कि हमें किसी भी तरह खुद को अगले वर्ष की गर्मियों तक ज़िंदा बचाये रखना है, क्योंकि तब तो निश्चित रूप से किसी न किसी तरह हमारी खोज कर ही ली जानी थी। तरह-तरह के ख्यालों से हम घिरे हुये थे। वीरान बर्फ की जमीन पर ख्याल आकर बार-बार जेहन से टकराते और हम जिंदा बचे रहने की योजनाएं बनाते रहते। वक्त बामुश्किलन कट रहा था।
हमने खुद को मानसिक तौर पर बुरी से बुरी स्थितियों के लिए भी तैयार कर लिया था। हाल यह था कि हम खुद के मरने के बाद मिलने वाले इंश्योरेंस की रकम के बंटवारे तक की बात करते हुए वक्त गुजार रहे थे। हममें से हरेक का अपना हिसाब था। हमने अपनी-अपनी जिंदगियों का पूरा लेखा-जोखा इस दौर में कर लिया था। हालात इतने खराब थे कि हम खुद के मरने की बातों को करते हुये बहुत सहज महसूस करने लगे थे।
Leave your comment