'टीम ने जो माला हमारी फोटो पर चढ़ाने के लिये तैयार की वो अब गले में थी'

अंटार्कटिका'टीम ने जो माला हमारी फोटो पर चढ़ाने के लिये तैयार की वो अब गले में थी'

गोविंद पंत राजू

गोविंद पंत राजू साहब की पत्रकारिता की यात्रा 25 से भी ज्यादा साल पुरानी है। उनके लेखन का सफर पहाड़ों से मैदानों तक रहा है। साल 1991-92 के ग्यारहवें भारतीय अंटार्कटिका अभियान दल में उन्हें कला और मानविकी के क्षेत्र से शामिल होने और अंटार्कटिका की यात्रा करने का मौका मिला। इस उपलब्धि के साथ वो भारत की ओर से अंटार्कटिका की यात्रा करने वाले पहले भारतीय पत्रकार भी बन गये। राजू साहब ने लंबे समय तक 'आज तक' के साथ काम किया है।‘ ‘हिलांश’ पर उनकी श्रृंखला ‘अंटार्कटिका’ को पेश करते हुए हमें खुशी हो रही है।

(भाग-6) इस समय हमारी चिंता यह थी कि जैसे भी हो जल्द से जल्द जीवा को लेकर हमें ऊपर खुली हवा और उजाले में पहुंचना है। कल जो सीढ़ी देखी थी, उसे अपनी जगह से हटाने में काफी मशक्कत करनी पड़ी। उसे ऊपर के आखिरी प्लेटफार्म तक पहुंचाना भी बड़ी टेढ़ी खीर थी। भीषण चिकनी सीढ़ियों पर सीढ़ी उठाते हुए फिसल जाने पर चोट लगने या  हड्डी टूट जाने का बहुत खतरा था। चूंकि अंटार्कटिका में हड्डियां बहुत कमजोर हो जाती हैं, इसलिए हमें वहा इस बात के लिए बहुत अधिक सावधानी रखने को कहा गया था। ये नसीहत हममें से सबके दिमाग में छपी हुई थी, इसलिए हम बहुत सावधानी के साथ ऊपर चढ़ रहे थे। तस्वीरें खींचने और अपने आने के प्रमाण स्वरूप अपने नाम और तारीख बोर्ड पर लिखने के बाद हम धीरे-धीरे वहां से बाहर निकल आये।

ऊपर बर्फ में लौट आने के बाद हमारे लिए यह यकीन कर पाना मुश्किल हो रहा था कि हम अपने पीछे 30-35 मीटर नीचे बर्फ में दबे एक ऐसे स्थान को छोड़ आये हैं, जहां कभी भारतीय विज्ञानियों और सैनिकों की गतिविधियों से जीवंतता प्रस्फुटित होती थी और जिंदगी धड़कती थी। हालांकि, वहां रखे खाने के सामान ने प्रतिकूल परिस्थितियों से लड़ने की हमारी जिजीविषा को और मजबूती दे दी थी, फिर भी हमें वहां नीचे ऐसा लगा था कि जैसे हम किसी बड़ी सी कब्र के भीतर पहुंच गए हों। हमने कई बार यह भी सोचा था कि  आइस शेल्फ के भीतर दफ़न यह डीजी स्टेशन जब कभी आइस शेल्फ के टूटने के बाद  समुद्र की अतल गहराइयों में भविष्य के किसी खोजी के सामने आएगा तो वह उसके लिए किसी कालपात्र से कम नहीं होगा, लेकिन इस वक्त तो हम यहां स्वयं के कालपात्र बन जाने से बचने की एक जंग लड़ रहे थे।

इसलिए हमने जल्दी से पोर्टा केबिन की ओर कदम बढ़ाये और जीवा को चाय का लालच देकर सहज बनाने की कोशिश में जुट गए। खाने का कामचलाऊ इंतजाम हो जाने के बाद अब हमने समय काटने के उपायों पर गौर करना शुरु कर दिया था। फिल्मों की चर्चा अब उबाऊ होने लगी थी। इसलिये हमने अब खाने की बातें शुरू कर दी। सुबह के नाश्ते, दिन के खाने, शाम की चाय और फिर रात के खाने के लिए बारी-बारी से एक को जिम्मेदारी दी जाती और वह अपने हिसाब से मेन्यू तय करता।

हम उन सब चीजों की कल्पना करते जो हमने कभी खाई थीं। जैसे-जिसे नाश्ते की जिम्मेदारी मिलती वह पहले यह बताता कि वह क्या बनाने जा रहा है। फिर अगर वह उसके बारे में कुछ ख़ास बात जानता हो तो वह उसे बताता। फिर आती बात जरुरी चीजों की और फिर उसके बाद बनाने का तरीका बताया जाता।

इस बीच अगर बाकी दोनों में से किसी को वह डिश नापसंद होती तो फिर नयी डिश तय की जाती। इस काल्पनिक नाश्ते के चक्कर में एक-डेढ़ घंटा आसानी से बीत जाता। फिर बाहर की बर्फ हटाने आदि से निपटते तो लंच पर चर्चा शुरू हो जाती। कल्पना लोक की इस सैर से हमारा समय तो आसानी से कट ही रहा था, हमारी स्वादेन्द्रियां भी एक तरह की तृप्ति का अहसास करने लगती थीं। इस तरक़ीब ने हमें मानसिक रूप से बहुत मजबूती दी, क्योंकि तरह-तरह की रेसिपीज के बारे में सोचते रहने से दिमाग को खाली रहने और वहां शैतान को घर बनाने का अवसर ही नहीं मिल पाता था।

हमने अब यह सोचना छोड़ दिया था कि कब मौसम साफ़ होगा और कब हमें बचाने के लिए कोई यहां पहुंचेगा। इसके बजाय हम यह सोचने लगे थे कि हम अपना अगला दिन किस तरह से बिताएंगे। हम तीनों अपनी डायरियों में जो कुछ भी लिखते उसे एक दूसरे को सुनना जरुरी कर दिया गया, ताकि एक दूसरे की मनोस्थिति के बारे में पता चलता रहे। मुझे और कालरा को यहां आये करीब 236 घंटे हो चुके थे और तूफ़ान को करीब 188 घंटे। मगर हमारे धैर्य, मानसिक दृढ़ता और विपरीत परिस्थितियों से जूझ सकने की सारी शक्तियों की अग्नि परीक्षा ख़त्म होने का नाम ही नहीं ले रही थी। हालांकि कई वर्ष पुरानी चीजें खाने के बाद भी हम अब तक अंटार्कटिका में अक्सर होने वाली फ़ूड पॉयजनिंग से बचे हुए थे।

कालरा को एक बार इसकी हलकी सी शिकायत हुई, जो हमारे पास मौजूद दवाओं से ही ठीक हो गयी थी। इसके अतिरिक्त अन्य किसी तरह का कोई शारीरिक कष्ट हमें नहीं हुआ था और यह बात हमें बहुत हौसला देती थी। पहले ही दिन से एक दूसरे पर व्यक्तिगत टिप्पणी न करने का जो नियम हमने बनाया था, उसके कारण भी हमारे बीच सह-अस्तित्व और एक दूसरे की परेशानियों को समझने की भावना बहुत मजबूत हो गयी थी। मेरे पास एक मल्टी परपज किट था, जिसमें दो तागे की रील और कुछ सूइयां भी थीं। हमने इसको समय काटने का नया हथियार बनाया। हम अपनी इनर पेंट के पायचों की सिलाइयां उधाड़ते और फिर उन्हें दुबारा हाथ से सिलते।

इस काम में लगने वाला समय नोट किया जाता और फिर हर बार कभी सबसे कम समय लेने वाले या कभी सबसे अधिक समय लेने वाले को विजयी घोषित किया जाता। हर बार तीनो लोगों का काम ख़त्म होने के बाद, पर्ची निकाल कर ही जीत की घोषणा की जाती। इससे सिलाई करते समय हमें यह मालूम नहीं होता था कि हमें ज्यादा तेज सिलने पर जीत मिलेगी या फिर धीमे सिलने पर। यह अपने आप में दिलचस्प खेल था। कम से कम अंटार्कटिका में जहां, हम उस वक्त तो कम से कम क्रिकेट या फुटबॉल खेलने की स्थिति में नहीं थे।

30 जनवरी की शाम तूफ़ान कुछ हल्का होता दिख रहा था, लेकिन कुछ घंटे बाद वह फिर तेज हो गया। इसने हमें और परेशान कर दिया। हमें यह आशंका होने लगी कि कहीं अब तूफ़ान और तेज न हो जाए, लेकिन जैसे हर रात के बाद फिर सूर्य निकलता है वैसे ही हमारी आफतों का भी सवेरा होना ही था। 31 जनवरी 1992 की सुबह हमें आसमान में कुछ गडगड़ाहटें सुनाई दीं। मैंने जल्दी से बाहर निकल कर देखा तो नेवी के दो पेंग्विन हेलीकाप्टर हमसे विपरीत दिशा में जाते दिखाई दिए।

यह हमारे लिए अभूतपर्व और अविस्मरणीय क्षण था। निराशा के बादल एक झटके से हट गए और यहां से सकुशल जिन्दा बच कर जाने की उम्मीदें हिलोरे लेने लगीं। हेलीकाप्टरों ने जैसे ही वापस हमारी और मुड़ना शुरू किया, वैसे ही मैंने अपनी जैकेट लहरा कर उनका ध्यान खींचने की कोशिश की मगर वे एक चक्कर लगा कर फिर से वापस मुड़ गए। मैंने हैलीपैड जैसी जगह की और तेजी से बढ़ने की कोशिश की मगर कुछ घंटे पहले तेज हुए तूफ़ान से उड़ कर आयी ताजा बर्फ में मैं धंस सा गया। हेलीकाप्टर जैसे-जैसे दूर होते गए मैं भी निराशा में डूबने लगा। मेरे दोनों साथियों के चेहरे भी एकदम उतर से गए। मौसम अब भी बहुत अच्छा नहीं था फिर भी मैंने केबिन का दरवाजे खोल दिया। दिल के किसी कोने में उम्मीद की एक किरण अभी बाकी थी।

घोर निराशा और असहायता से जूझते हुए करीब पंद्रह मिनट बीते होंगे कि दूर कहीं से गड़गड़ाहट की आवाजें फिर से सुनाई दीं। मैं झटपट बाहर निकला और पोली बर्फ में क्रॉल करता हुआ ऊपर पहुंच गया। मैंने अपनी लाल जैकेट लहराना शुरू किया और ऐसा लगा कि हेलीकॉप्टरों ने हमारा नोटिस ले लिया है। कुछ ही क्षण में दोनों हेलीकॉप्टर हमारे पास पहुंच चुके थे, चूंकि नीचे बर्फ बहुत पोली थी इस लिए दोनों हेलीकाप्टर सतह से करीब दो फिट  ऊपर ही स्थिर हो गए। सबसे पहले डॉक्टर ने उतर कर पूछा कि क्या सब कुछ  ठीक है। मेरे हां कहने पर उन्होंने अपने दोनों साथियों को अंगूठे से इसका इशारा किया फिर मैं अपने साथियों के पास गया और उनसे तत्काल बाहर निकलने को कहा।

सामान वहीं पर छोड़ हम तीनों हेलीकाप्टर की ओर बढ़े। जीवा को तुरंत एक इन्जेक्शन लगाया गया और फिर हम उड़ चले अपनी शिप की ओर... उम्मीदों के आसमान पर पेंग्विन में सवार। हम जिंदा बचने वाले थे, अब कम से कम इस बात का पक्का यकीन हो चला था। आसमान से उस जगह को देखना जहां हमने अपनी जिंदगी का सबसे खतरनाक वक्त गुजारा था, वो वक्त अब स्मृतियां बनने जा रहा था।

हम वापस अपने साथियों के पास जा रहे थे। रास्ते में हमें बताया गया कि सुबह जैसे ही शिप के आसपास का मौसम थोड़ा ठीक हुआ, उन लोगों ने जल्दी से हेलीकाप्टर डेक के अंदर से बाहर निकाले और हमारी खोज के लिए निकल पड़े। बेस पर सबको हमारी बहुत ही चिंता हो रही थी।

हेलिकॉप्टर हमारी तलाश में हमारे ऊपर दो चक्कर लगा चुका था, लेकिन उन्हें नीचे जिंदगी के कोई निशान या कोई हलचल नहीं दिखाई दी। कुछ देर के लिये तो उन्हें लगा था कि शायद हम मौसम का कहर झेल नहीं पाए। चूंकि वे भी मौसम के फिर बिगड़ने की सम्भावना देख रहे थे इसलिए उन्होंने वापस शिप की ओर लौटने का निर्णय कर लिया, लेकिन जब उन्हें शिप के आसपास मौसम ठीक दिखा तो पायलेट नंदन बल ने पायलेट खन्ना से कहा कि सर अभी हमारे पास पर्याप्त फ्यूल है और हम एक चक्कर और लगा सकते हैं, तब उन्होंने फिर से हमारी तलाश के लिए हेलीकॉप्टर वापस मोड़ लिए और उनका यह निर्णय हमें नयी जिंदगी दे गया। पायलेट नंदन के दिमाग में अगर एक दफा और हमारी खोज में निकलने का ख्याल नहीं आता, तब हमारा क्या होता? क्या हम हमेशाा के लिये बर्फ के उस समंदर में गुम हो जाते!

खैर, शिप में जब हम उतरे तो सारी टीम और शिप क्रू हमारे स्वागत के लिए तैयार खड़ा था। हमें मालाएं पहना कर हमारा स्वागत किया गया। शैम्पेन और चाकलेटों से हमारा मुंह मीठा करवाया गया और हमारे जयकारे लगाए गए। हम जंग जीत चुके थे। अंटार्कटिका में खड़े होकर इस लंहें को जीना हमारी जिंदगी के सबसे शानदार पलों में भी सबसे कीमती पल था। हमें नहाने के बाद डाक्टर के पास पहुंचने को कहा गया। शाम को जब हम शिप के डायनिंग हाल में बैठ कर कुछ खा रहे थे और उस स्वाद को याद कर रहे थे जो हमने ढाई सौ घंटे से भी अधिक समय तक हासिल किया था, तब एयरफोर्स के एक साथी ने आकर हमें बताया- 'यहां तो तुम लोगों की तस्वीरें भी तैयार कर ली गयीं थी और जो मालायें तुम्हारे गलों में पड़ी, दरअसल वे तुम्हारी तस्वीरों के लिए बनी थीं'... इस वक्त हमें लगा कि हमारा लॉकडाउन वाकई ख़त्म हो चुका था! 

 

अंटार्कटिका के पिछले भाग...

(भाग- 1) अंटार्कटिका में लॉकडाउन और 224 घंटों की वीरान डरावनी जिंदगी

(भाग- 2) : ‘हमारे उपकरणों ने सिग्नल देना बंद कर दिया, केबिन के चारों ओर बर्फ की दीवार जम गई’

(भाग- 3) 'बर्फीले तूफान के बीच हमने जिद से फहरा दिया तिरंगा, नाक के चारों ओर जमें बर्फ के क्रिस्टल हटाने पर उखड़ने लगे थे बाल'

(भाग- 4) बर्फ के अंदर 35 मीटर नीचे उतरकर 'मौत की गुफा' से मैं निकाल लाया खाना, भूख से झगड़ने लगे थे दोस्त!

(भाग- 5) जिंदा रहने के लिये साल 1988 में पैक हुआ खाना 1991 में खाया, हेलिकॉप्टर के इंतजार में काट रहे थे दिन!

 

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