मैं उन रास्तों में निकलने के लिये तैयार था, जहां मेरे पूर्वजों के पदचाप की गूंज बाकी है..!

गढ़वाल से कुमाऊंमैं उन रास्तों में निकलने के लिये तैयार था, जहां मेरे पूर्वजों के पदचाप की गूंज बाकी है..!

केशव भट्ट

केशव भट्ट उत्तराखंड के एक हिमालयी कस्बे बागेश्वर में रहते हैं। केशव को ढूंढना बेहद आसान है। बागेश्वर में उनकी एक मिठाई की दुकान है, लेकिन यही उनकी पहचानभर नहीं है! असल में केशव ने लंबे वक्त तक अखबारों के लिए लेखन किया है और इससे भी बढ़कर उन्होंने हिमालय के अलग-अलग हिस्सों को नापा है। केशव का लेखन ताजगी से भरा हुआ है और इससे गुजरते हुए वो आपको अपने साथ हिमालय के दर्रों और घाटियों में चुपचाप लिए चलते हैं। 'हिलांश' पर केशव के किस्सों की एक पूरी खेप आ रही है।

(भाग -1) जब सड़कें नहीं थी, विकास के नाम का ताना-बना नहीं बुना गया था... यात्राएं व दूरियां दोनों पैदल नापी जाती थी। इन यात्राओं को समय नहीं बांधता था। लोग ठहरने के बाद अपनी यात्राओं के किस्से सुनाया करते थे। सुनने वाले बड़े ही धैर्य से उनके किस्सों को भावी पीढ़ियों के लिए कागजों में उकेरते चले जाते थे। रास्ते तो खैर अभी भी अपनी जगह पसरे हुये हजारों कहानियां कहते प्रतीत होते हैं, लेकिन इन पर फुर्सत से गुजरने वाले इधर कम होने लगे हैं। इतिहास बन गए इन रास्तों पर कभी-कभार किसी के चलने का सुकून पथिक के साथ ही, रास्तों को भी शायद मिलता ही होगा। इस यात्रा वुतांत में ऐसे ही बिछड़े हुये रास्तो पर आगे बढ़ते हैं...

गढ़वाल व कुमाऊं के हिमालय की तलहटी में पसरे बुग्याल अपने साथ कई सभ्यताओं को भी जोड़े हुए हैं। ट्रैकिंग के बहाने मैं अपने साथियों के साथ इन सबसे रूबरू होते आया हूं। सड़क से दूर पसरे इन गांवों में अभी भी शांति पसरी हुई मिलती है। गढ़वाल व कुमाऊं को जोड़ने वाले इन पारम्परिक हिमालयी रास्तों से आना-जाना तो अब गये जमाने की बात सी हो गई है। कभी-कभार कोई बुजुर्ग अपनी यादों को टटोलता हुआ गर इन रास्तों पर भूला भटका आ भी जाता, तो अब पहाड़ों को हर रोज निगल रही मशीनों ने वो सुख भी छीन लिया। यूं समझ लीजिये कि हिमालय की जड़ें खोद कर जीपों का जो नया रास्ता बना, इन नये रास्तों ने इन पौराणिक व साहसिक यात्राओं पर विराम सा लगा दिया है।

जिंदा रहने के लिये साल 1988 में पैक हुआ खाना 1991 में खाया, हेलिकॉप्टर के इंतजार में काट रहे थे दिन!
 
किस्सों में जिन घाटियों का जिक्र अक्सर सुना था, मेरे मन में कहीं एक लालसा भी बनी हुई थी कि किसी रोज इन क्षेत्रों में रची-बसी घाटियों की खूबसूरती को देखने निकल पडूंगा। कई बुजुर्गों से बचपन में मैंने गढ़वाल व कुमाऊं के हिमालयी जन-जीवन की कष्टप्रद जिंदगी के बारे में सुना था, इसे अब करीब से देखने का वक्त था। मैं इन घाटियों और पारंपरिक रास्तों के बारे में जानकारी ही जुटा रहा था कि तभी चमत्कारिक ढंग से इस बीच सीएस नपलच्याल बागेश्वर के नए जिलाधिकारी बनकर पहुंचे। ये अनोखा संयोग था। मिस्टर नपलच्याल की दिलचस्पी पुराने रूट्स को खेजकर एक बार उनपर चलने की थी और वह कई दफा ऐसा कर भी चुके थे।

वो मुख्यतः व्यास घाटी के नपलच्यू गांव के बाशिदें हैं। भारत-तिब्बत की सरहद से लगी इन सीमांत व्यास, दारमा व जोहार घाटियों के बाशिंदे अधिकतर खुशमिजाज किस्म के लोग ही होते हैं। इन घाटियों से निकले कई जाबांजों ने एवरेस्ट सहित कई दुर्गम पर्वतों का माथा चूमा है। जोहार का मिलम, दारमा का गो व व्यास घाटी के कुट्टी गांव तक पहुंचने के लिए प्रकृति हर तरह से परीक्षा लेती है। तिब्बत से सटी इन घाटियों की बीहड़ता ने ही शायद यहां के लोगों को जूझारू बनाया होगा।

एक रोज जब मैं अपने डीएम से मिलने पहुंचा तो  व्यास घाटी का जिक्र आया। इस घाटी का जिक्र आते ही नपच्याल अलग उत्साह से भर गये। बातचीत में उन्होंने अब तक किये अपने तमाम टै्क्स की लिस्ट ही खोल कर मेरे सामने रख दी थी। मेरे सामने एक पर्वतारोही बैठा हुआ था, जो संयोग से इस वक्त जिले के सबसे बड़े प्रशासनिक पद पर था। यह अचरज की बात थी। अधिकारी अक्सर फाइलों और नफे-नुकसान की गणित में ही उलझे दिखते है।, लेकिन यहां मामला अलग था।

(भाग- 1) अंटार्कटिका में लॉकडाउन और 224 घंटों की वीरान डरावनी जिंदगी

उन्होंने अपने अभियनों का जिक्र छेड़ दिया था। उन्होंने कहा- 'मैं जब चमोली में था तब ताल, उत्तरकाशी में पोस्टिंग के दौरान द्यारा बुग्याल और दारमा के दातू गांव तक हो आया हूं'। फिर उन्होंने पारंपरिक रास्तों की ओर बात मोड़ ली और कहा- 'अभी एक पुराना रास्ता भी तो है, जो गढ़वाल के देवाल से कुमाऊं में कहीं मिलता है।' मैं ऐसे ही किसी पारंपरिक रास्ते के बारे में पिछले दिनों सोच रहा था। बात आगे बढ़ी तो नपच्याल साहब ने कहा- 'घेस में आर्मी से रिटायर्ड मेरे एक मित्र हैं। कैप्टन बिस्टजी। उन्होंने एक हर्बल गार्डन भी बनाया है शायद। देहरादून में कभी उनसे मुलाकात हुई थी तब उन्होंने इस बारे में बताया था। बहुत खुबसूरत रास्ता है, जो वहां से कुमाऊं तक पहुंचता है।' मेरा दिमाग इसी रास्ते पर चलने का ना जाने क्यों खाका बुनने लगा था।

(बागेश्वर)

मैं कुछ कहता, उन्होंने कहा- 'यदि संभव हो तो पता करो इस रास्ते के बारे में...मौका लगेगा तो इस पुराने रास्ते से हम भी हो आएंगे।' नपलच्याल साहब बहुत देर तक बोलते-बताते खो से गए थे। ऐसा लग रहा था, जैसे वो अभी सब कुछ छोड़-छाड़ कर उन रास्तों पर निकल जाना चाहते हों, जहां से कभी हम सबके पूर्वज गुजरे थे। इस पूरे समय के दौरान उनसे बात करते हुये हिमालय व उसके जन जीवन को जानने व समझने की उनकी छटपटाहट साफ नजर आ रही थी। मुझे इस वक्त एक प्रशासक कम बल्कि हिमालय की गोद में पले-बढ़े एक आम आदमी की जिज्ञासा और उसके बीते हुये कल का वो हिस्सा  ही ज्यादा दिख रहा था, जो अपनी जमीन को और करीब से देखना चाहता था। एक शख्स जिसने हिमालय के दुर्गम हिस्से को करीब से जिया हो, वो हिमालय के प्रति अतिरिक्त संवेदनशीलता और मानस लेकर आगे बढ़ता ही है।

बहरहाल मैंने इस पौराणिक रास्ते को होली में ट्रैकिंग के लिए चुन लिया। नपच्याल साहब को मैंने यह कह कर मना लिया कि पहले हम इस रास्ते की रेकी कर आते हैं, और उसके बाद आप बाद में इस रास्ते से रूबरू होना। मैंने इस रास्ते को लेकर जानकारियां जुटानी शुरू कर दी, जिससे हमें अपनी तैयारियों को अंतिम रूप देने में आसानी रहे। इस यात्रा के लिये इस बार मेरे साथी बने पहाड़ के ही जीवट व हरफनमौला दरबान सिंह। इस यात्रा में भीड़ कम ही रखने का इरादा था।

यात्रा में बुजुर्गों के पदचापों को सुनने का एक सपना जो पाला था, वो सपना खामोश, प्रकृति के साथ आत्मसात होकर चलते रहने से ही पूरा हो सकता था। भीड़ में तो वो गुम सा हो जाता। लिहाजा, चुपचाप इन रास्तों पर उतरने का ही फैसला लिया।

मैं और मेरे साथी दोनों ही जब इस ट्रैक के बारे में जानकारी जुटाने लगे तो, यह जानकर ताज्जुब हुआ कि इस रास्ते के बारे में हमारे तकरीबन सारे घुमक्कड़ परिचित आधी-अधूरी ही जानकारी रखते हैं। हमारे माउंटेनियर साथी सुमित गोयल ने जरूर एक कंटूर मैप के साथ ही टैंट भेज थोड़ी सुविधा उपलब्ध करवा दी थी, लेकिन उनके पास भी पूरी जानकारी नहीं थी। मैंने देवाल में अपने साथी हेम मिश्रा से इस रूट के बारे में जानकारी जुटाने के लिए खूब मिन्नतें भी की, लेकिन अंत तक भी हमारे हाथ सिर्फ एक नक्शा व आधा-अधूरी जानकारी ही मिल सकी। इस बीच हमारी यात्रा को लेकर कौसानी से मानवेश जोशी ने भी दिलचस्पी दिखलाई, तो हम उसे मना नहीं कर सके और वो भी हमारी यात्रा का हिस्सा बन गया।इस यात्रा के लिए कम से कम, लेकिन जरूरी सामान जुटा कर हमने चतुर्दषी की सुबह शुरुआत करने का प्लान बना लिया था।

(भाग- 2) : ‘हमारे उपकरणों ने सिग्नल देना बंद कर दिया, केबिन के चारों ओर बर्फ की दीवार जम गई’

हमने अब तक मिली जानकारियों के आधार पर ही अपना रूट तैयार किया था। हममें से न कोई पहले इन इलाकों में भीतर तक उतरा था, न जगहों को लेकर हमारे पास सटीक जानकारियां ही थी। हम तैयार थे, उस यात्रा के लिये ​जहां हमें अपने पूर्वजों के पदचिन्हों पर चलने का मौका मिलने जा रहा था... एक ऐसी यात्रा जो शायद ही फिर कभी हो... हम उन रास्तों पर चलने के लिये तैयार थे, जिन्हें बहुत पहले सड़कों ने कुचलकर धुंध्ला दिया था। हिमालय की पगडंडियां, जहां कभी जिंदगी धड़कते हुये चलती थी।

जारी है..

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