केशव भट्ट उत्तराखंड के एक हिमालयी कस्बे बागेश्वर में रहते हैं। केशव को ढूंढना बेहद आसान है। बागेश्वर में उनकी एक मिठाई की दुकान है, लेकिन यही उनकी पहचानभर नहीं है! असल में केशव ने लंबे वक्त तक अखबारों के लिए लेखन किया है और इससे भी बढ़कर उन्होंने हिमालय के अलग-अलग हिस्सों को नापा है। केशव का लेखन ताजगी से भरा हुआ है और इससे गुजरते हुए वो आपको अपने साथ हिमालय के दर्रों और घाटियों में चुपचाप लिए चलते हैं। 'हिलांश' पर केशव के किस्सों की एक पूरी खेप आ रही है।
(भाग-2) चतुर्दषी की सुबह बोश्वर के ही एक स्थानीय युवक प्रदीप की जीप में हम देवाल को निकल पड़े। यहां से हमें घेस के लिये पैदल रास्ता ढूंढना था। यह एक ऐसी यात्रा थी, जिसको लेकर हम में से कोई भी कुछ नहीं जानता था। देवाल पहुंचकर हमने अपने एक परिचित हेम मिश्रा को फोन लगाया, तो थोड़ी देर में वो शर्माते-सकुचाते हुये से आते दिखे। उनका कुर्ता-पायजामा भीगा सा दिख रहा था। यही उनकी झेंप की असल वजह भी थी। हमसे मिलते ही उन्होंने अपनी सफाई में कहा- 'गली में से आ रहा था तो ऊपर से रिश्ते की साली ने होली है, कह कर पानी डाल दिया।' उनकी सफाई से ज्यादा हमें निकलने की जल्दी थी। हमने उनसे रास्ते को लेकर जानकारी चाही तो वो सड़क मार्ग ही बता सके, पैदल रास्ते की उन्हें कोई जानकारी नहीं थी। उन्होंने हाथ खड़े कर दिए थे। हालांकि उन्होंने एक राहत की बात जरूर बता दी। उन्होंने कहा कि जजमानी की वजह से उन्हें गांवों में सभी यजमान जानते हैं, वो हमारी मदद कर देंगें। घेस का रास्ता पूछकर हम देवाल को पीछे छोड़कर निकल पड़े।
देवाल से घेस व हिमनी के लिए प्रधानमंत्री ग्रामीण सड़क योजना के तहत सड़क बन रही थी। ठेकेदार जेसीबी मशीनों से पहाड़ों को काट-काट कर सड़क बनाने में जुटे पड़े दिखे। अभी इस सड़क में चलने के लिए विभाग ने परमिशन नहीं दी थी, लेकिन बेरोजगारी की मार के चलते स्थानीय युवाओं ने इस मार्ग में अपनी जीप दौड़ानी शुरू कर दी। ये उनके लिये बेहद खतरनाक हो सकता है। गांव के बुजुर्ग भी खुश हैं। इस नई बन रही सड़क में हिचकोले खाती जीप में बैठने के जोखिम में उन्हें डर नहीं लगता। वो अपनी पोपली हंसी में कहते हैं- ‘देवाल बाजार आने-जाने में तीन-चार दिन तो लग ही जाते थे पहले...अब इन छोरों की घोड़ा गाड़ी में तो सुबह जाओ और शाम को घर आ जाओ।’
घटगाड़ के किनारे से होते हुए करीब 15 किमी चलने के बाद प्रदीप ने ब्रेक लगाकर पूछ लिया कि किधर को जाना है! बाहर निकले तो आगे दो रास्तों के किनारे प्रधानमंत्री सड़क परियोजना का एक बड़ा सा बोर्ड दिखा। इसके मुताबिक मार्च 2007 से इस सड़क का निर्माण भारत भूमि बिल्डर के द्वारा किया जा रहा है। कुंडर बैंड से घेस की दूरी 25.66 किमी है। दूर तक कोई भी हमें जानकारी देने वाला नहीं मिला, तो फिर हम घेस की ओर चल पड़े। आगे कई जगहों पर सड़क काफी खतरनाक व खड़ी ढाल लिये हुए थी। प्रदीप को बस एक ही डर सता रहा था कि वापसी में यदि कोई परेशानी आई, तब वो अकेले क्या करेगा!
तकरीबन एक घंटे के सफर के बाद हमें एक बेतरतीब मोड़ पर तीन जीप खड़ी मिली। सड़क के दूसरी ओर पर एक गोठ में दुकान भी दिखी। प्रदीप ने जीप रोक ली। आगे होल्यारों का एक झुंड भी होली के गीत गाते दिखा। युवा दुकानदार जिसका नाम राजू था, उससे हमें मालूम चला कि यही घेस है। हमने यहां अपने संपर्क बिष्ट जी को लेकर जानकारी मांगी तो पता लगा कि उनका इलाका हम तीन किलोमीटर पीछे छोड़ आए थे।
अपने रास्ते को लेकर हमने आस-पास मौजूद लोगों से जानने की कोशिस की तो जो जानकारी तीन-चार लोगों ने हमें दी वो खिचड़ीनुमा निकली। सड़क का काम आगे हिमनी गांव तक चल रहा था। हमने प्रदीप से हमें कुछ आगे तक छोड़ने की मिन्नत की तो उसने होल्यारों के झुंड की ओर बेबसी से नजर डाली। हम वापस फिर से दुकानदार की शरण में चले गए और उसे अपनी यात्रा का महत्व बताया। हमने उससे कहा कि हम इस इलाके की पूरी जानकारी बागेश्वर के डीएम को देंगे। वो खुद इस क्षेत्र की यात्रा करना चाहते हैं।
इतना सुनना था कि युवा दुकानदार राजू ने लंबी हांक लगाई। एक अनवाल नुमा लड़का दौड़ कर आया। उसने बताया कि वो ऊपर बुग्यालों में कई बार भेड़ बकरियों के साथ जाता रहता है और उसे इन इलाकों की अच्छी समझ है। हम गढ़वाल के एक हिस्से में थे और यहां से हमें वापस अपनी जमीन कुमाऊं पहुंचना था। हमें कुमाऊं तक पहुंचने के उस पारंपरिक रास्ते की तलाश थी, जिस पर हमारे पूर्वजों ने कभी चहलकदमी की हो..।
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बमुश्किलन हम उस लड़के से यही जान सके कि दुलाम बुग्याल से आगे थोड़ा खतरनाक सा रास्ता कुमाऊं की ओर जाता है। होल्यारों का झुंड प्रदीप से होली की दक्षिणा के लिए इंतजार कर रहा था। उन लड़कों को कुछ दक्षिणा देकर हम आगे हिमनी की ओर बढ़ चले। दो किमी के बाद सामने की पहाड़ी में एक जेसीबी पहाड़ काटती दिखी। वो पत्थरों के ढेर को पीछे छोड़ रही थी।
आगे परेशानी जानकर हमने अपना साजो-सामान ले लिया और यहीं से प्रदीप को वापस लौटा दिया। करीब किलोमीटर भर चलने के बाद सड़क खत्म हो गई। हम जहां खड़े थे, वहां से ऊपर पहाड़ी पर एक पतले से रास्ते से हिमनी गांव को लक्ष्य बनाकर हमने चलना शुरू कर दिया। नीचे जेसीबी की गर्जना अब भी सुनाई दे रही थी। पेट के खातिर जेसीबी चालक इस दुर्गम पहाड़ को काटकर सड़क बनाने में जुटा हुआ था। कई दफा ऐसी सड़कों पर बड़े हादसे हो जाते हैं और यह पहाड़ों पर आम है।
हिमनी गांव की सीमा शुरू हो गई थी। हमें सामने से अपने खच्चरों के साथ एक मस्तमौला सा युवक आता हुआ दिखाई दिया, तो हमने उसे ही रोककर हिमनी गांव की पूछताछ शुरू कर दी। वो युवक हिमनी गांव का ही बाशिंदा था, जिसका नाम हरीश दानू था। उसने हमें बताया कि घेस में 150 व हिमनी में 80 मवासे (परिवार) रहते हैं। हिमनी में जूनियर हाईस्कूल के बाद बच्चों को आगे की पढ़ाई के लिए घेस व देवाल की शरण लेनी होती है। ये वो इलाके हैं जो शिक्षा से लंबे वक्त तक महरूम रहे और पिछले कुछ दशकों में यहां तक चीजें पहुंचनी शुरू हुई।
'प्रधान पति' लक्ष्मण सिंह के घर पर लगे फोन से ही पूरा गांव बाहर की दुनिया से संपर्क साधता है। यही अपने लोगों की कुशल-क्षेम पता करने का जरिया है। हरीश से विदा लेकर हम आगे बढ़ गये। हिमनी गांव पहाड़ पर नीचे की ओर काफी विस्तार लिए हुये है। हरीश से बातें करते हुये लंबा वक्त गुज गया था और अब हमें अपनी मंजिल की ओर बढ़ना था, लिहाजा गांव में जाने की लालसा को त्याग कर हमें आगे बढ़ जाना पड़ा। आगे लंबा सफर हमारे इंतजार में था...
जारी है...
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