हमारी देह नोचने के इंतजार में डैने फैलाए गोते लगा रही थी चील, बुग्याल फूंककर शिकारियों ने छोड़े थे तबाही के निशान

गढ़वाल से कुमाऊंहमारी देह नोचने के इंतजार में डैने फैलाए गोते लगा रही थी चील, बुग्याल फूंककर शिकारियों ने छोड़े थे तबाही के निशान

केशव भट्ट

केशव भट्ट उत्तराखंड के एक हिमालयी कस्बे बागेश्वर में रहते हैं। केशव को ढूंढना बेहद आसान है। बागेश्वर में उनकी एक मिठाई की दुकान है, लेकिन यही उनकी पहचानभर नहीं है! असल में केशव ने लंबे वक्त तक अखबारों के लिए लेखन किया है और इससे भी बढ़कर उन्होंने हिमालय के अलग-अलग हिस्सों को नापा है। केशव का लेखन ताजगी से भरा हुआ है और इससे गुजरते हुए वो आपको अपने साथ हिमालय के दर्रों और घाटियों में चुपचाप लिए चलते हैं। 'हिलांश' पर केशव के किस्सों की एक पूरी खेप आ रही है।

(भाग-3) अभी हमें लंबा रास्ता तय करना था। वीरान पहाड़ों पर कहीं दूर तक भी जिंदगी नजर नहीं आ रही थी। हम तीनों चुपचाप अपनी मंजिल की ओर बढ़ रहे थे। सामने बुग्यालों में आग लगने से धुंवे के बादल उठते दिख रहे थे। ये आग शिकारियों ने लगाई थी। इन इलाकों में शिकारियों का राज है। वो चुपचाप यहां अपना काम बेरोक-टोक करते चले आ रहे हैं। हिमालय के इन दुर्गम इलाकों में न कोई इन्हें रोकने वाला है ना ये पकड़ में आ पाते हैं। हम खेतों के बीच से गुजर रहे रास्ते से दुलाम बुग्याल की ओर बढ़े चले जा रहे थे। ग्रामीणों के मुताबिक दुलाम चार किमी दूर है। धूप में तेजी थी।

हमारे कंधों पर बोझ था और सिर पर चिलमिलाती धूप, जो कदमों को भारी कर रही थी। खेतों के पार जंगल के झुरमुट में जाते ही गर्मी से तो निजात मिल गई, लेकिन पीठ पर लदे वजन ने हमें चूर कर दिया था। हमने कुछ देर सुस्ताना बेहतर समझा। इसके बाद कुछ देर चलने पर सामने साठ डिग्री की ढलान लिए दुलाम बुग्याल बर्फ से लकदक नजर आ रहा था। ये कैसा खूबसूरत नजाता था, इसे शब्दों में बयां करना मुश्किल है। बर्फ में ढका हुआ बुग्याल, एक अलग जमीन का अहसास करवा रहा था।बुग्याल पर नीचे की ओर कुछ खरक दिखे। हमने सूर्यास्त होने में वक्त देख दुलाम के शीर्ष पर ही रूकने का इरादा कर लिया था। पाउडर बन चुकी बर्फ और चढ़ाई पांव आगे बढ़ाने में मुश्किलें पैदा कर रही थी। गिरते-पड़ते हम किसी तरह धार (चोटी) में पहुंचे तो सूरज पहाड़ के क्षितिज पर लालिमा बिखेरते हुये नीचे की ओर लुढ़क रहा था। ये मेरे जीवन के देखे गये तमाम सूर्यास्त में एक शानदार पल था।

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आसमान में बिखरी लालिमा के नीचे दूर कहीं पहाड़ पर चिपका हुआ घेस गांव दिख रहा था। हम टैंट तानने में मशगूल थे और इधर धीरे-धीरे आसमान से लालिमा गायब होकर स्याह रंगों में बदल रही थी। दिनभर पैदल चलने से हम थककर चूर थे, लिहाजा कुछ ही देर में खाने की जुगत कर सो गए। अगले दिन ठंडी सुबह सामान समेट कर आगे की अनजान राह में जाने के लिए तैयारी की तो सामने बुरांश के झुरमुटों में दो रास्ते दिखे। एक रास्ता ऊपर की ओर बढ़ रहा था और दूसरा पहाड़ की ढलान पर नीचे को जा रहा था। हमने नीचे की ओर बढ़ रहे रास्ते को चुना, क्योंकि इसी रास्ते पर लोगों के चलने के ज्यादा निशान नजर आ रहे थे। हम कुछ ही दूर तक इस रास्ते पर बढ़े थे कि अचानक इस उतरते हुये रास्ते ने दम तोड़ दिया! आगे गहरी खाई थी। मायूस होकर हम वापस मुड़ गये और दूसरे रास्ते पर आगे बढ़ने लगे।

बुरांश के पेड़ अब रास्ते के नीचे आ गए थे। ऊपर बुग्याली घास दिखने लगी थी, जिसका सीधा सा मतलब था कि हम बहुत ऊंचाई पर चल रहे हैं। हम धीरे-धीरे और अधिक उंचाई की ओर बढ़ रहे थे, जहां से नीचे बिखरी हुई घाटिया दूर तक विस्तार लिये हुये साफ नजर आ रही थी। अब पहाढ़ की ढ़लान तीखी होने लगी थी। रास्ते से ढ़लान का नीचे की ओर अंत कई किलोमीटरों की दूरी लिये हुये था। रास्ता खतरनाक था और जरा सी लापरवाही का मतलब था सैकड़ों फीट नीचे खाई में समा जाना।

(बुरांश का अधखिला हुआ फूल)

हम सभी सावधानी से चल रहे थे। हमारे सिर के ऊपर चील मंडरा रही थी। एक पल को ख्याल आया कि कहीं ये चील इस इंतजार में तो नहीं कि हममें से कोई इस तीखी ढ़लान पर लुढ़के और उसका कुछ दिनों का भोजन का इंतजाम हो सके! सचमुच ये ढ़लान जानलेवा थी। हममें से कोई भी अगर फिसलकर हादसे का शिकार हो जाता, तब उस शख्स के पास पहुंचना बाकी दो के लिये काफी मुश्किल हो जाता। हम किसी तरह अगर वहां पहुंच भी जाते, तब भी उस शख्स को बचाकर रास्ते तक ला पाना हमारे लिये संभव नहीं था। मतलब साफ था कि हमें अतिरिक्त सावधानी बरतकर धीरे-धीरे आगे बढ़ना था।

इस तरह के रास्तों के लिए गांववालों का कहना था- ‘साहब! बस दो-चार बुरांश के फूल-पत्ते तोड़ नीचे को अर्पित कर माफी मांग लेनी चाहिये।’ ये कहावत संभवत: प्र​कृति के प्रति समर्पण का इजहार होती है कि हम उसे कोई चुनौती नहीं दे रहे हैं। हिमालयी गांव आपको प्रकृति की उपासना करते हुये उन दकियानूसी पर्यावरण कार्यकर्ताओं से कहीं आगे खड़े मिलेंगे, जिन्होंने प्र​कृति की ताकत को सही मायनों में बहुत पहले पहचान लिया है। ये उनकी अनुभवजन्य उपासना है, जो उन्हें प्रकृति पर भरोसा बनाये रखने को पीढ़ी दर पीढ़ी प्रेरित करती चली जाती है। यहां हमें हौसला भी इसी प्रकृति से लेना था और आगे की राह भी ढूंढनी थी।

कुछ दिन पहले गिरी बर्फ में ढक चुके रास्ते का अनुमान सावधानी से लगाना पड़ रहा था। आप हिमालयाी रास्तों से अपरिचित हैं, तब ऐसी जगहों पर हादसे की संभावना कई गुना बढ़ जाती है। संयोग से हम तीनों ही हिमालयाी दुर्गम रास्तों पर पहली मर्तबा नहीं चल रहे थे। हमें कई दफा रास्ते को छोड़ना पड़ा। हमारे साथी दरबान, हाथ में बड़ी लकड़ी की लाठी पकड़े हुये सावधानी से एक-एक कदम रख आगे का रास्ता खोलने में जुटे पड़े थे। पांवों से टूटती बर्फ की आवाज सन्नाटे को भी तोड़ दे रही थी। दरबान साहब के पैरों के निशान के ऊपर ही हम दोनों भी अपने पांव टिकाते और आगे बढ़ जाते। यहां फुटप्रिंट्स ही सुरक्षित रास्ते का पैमाना थे।

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होमकुनी बुग्याल को पार करने के बाद निरणीधार के पास हमें पड़ाव के अवशेष दिखे... हम बर्फ पर चलकर थकने लगे थे, लिहाजा सुरक्षित जगह देखते ही हम तीनों वहां बिछे बड़े-बड़े पत्थरों पर पसर गए। हमारे सिर के ठीक ऊपर होमकुनी बुग्याल फैला हुआ था। हमने आसमान में टकटकी लगाई तो चील अब नजर नहीं आ रही थी। वो काफी दूरी तक हमारा पीछ़ा करते हुये आसमान में मंडराती रही थी। शायद उसकी उम्मीद भी हमारे सटीक पड़ते कदमों ने रौंद दी थी। हम वहीं बैठकर बहुत देर तक सिर्फ बुग्यालों को देखते रहे। कोई शोर नहीं था... हम तीनों के सिवाय वहां कोई और नहीं था। आग लगने से बुग्यालों की सारी घास जल गई थी। ये करामात शिकारियों की ही रहती है। कस्तूरी हिरन, तेंदुवा, भालू, मोनाल उन्हें जो मिल जाये वो उसका शिकार करने के लिए बुग्यालों में आग लगा देते हैं। आग से भागते वन्य जीव शिकारियों की गोलियों का आसानी से शिकार बन जाते हैं। इन ​शिकारियों पर लगाम लगाने में वन विभाग नाकाम रहता है। इसके कारण भी साफ हैं। पहला कि ये इलाके बेहद दुर्गम हैं और दूसरा भारत का वन महकमा आज भी पारंपरिक तरीकों से ही जंगलों में गश्त लगाता है। शिकार के लिये मुफीद महीनों में कायदे से यहां तकनीक की मदद से गश्त चलनी चाहिये, लेकिन ऐसा अब तक नहीं हो सका है।

हालांकि, वन्यजीवों को बचाने वाले भी वन विभाग के ही कुछ कारिंदे होते हैं। साल में एक-आध दफा बिचौलिये खाल और यारसा गंबू के साथ पकड़े जाते रहे हैं, लेकिन यह भी सिर्फ वन विभाग की फाईल ही मेंटेन करने जैसा है। इसका असर शिकार पर कम ही नजर आता है। शिकारियों के सामने पस्त वन महकमे को देखकर लगता है कि वन कानून मानों सिर्फ हिमालय की सीधी-साधी जनता के लिए ही बने हों।

यहां बैठे हुये हमें काफी देर हो चुकी थी। कहीं दूर से आसमान में उड़ता हुआ एक बादल का टुकड़ा देख, हमने कंधों मे रूकसैक डाल लिये थे। अब हवा भी तीखेपन का एहसास करवाने लगी थी। तकरीबन घंटे भर चलने के बाद एक जगह हमें काफी सारे कलात्मक पत्थरों का जमघट नजर आया, जो ‘कैरोन’ का सा एहसास करा रहे थे। मैंने तुरंत नक्शे में देख अनुमान लगाया कि इसे माणिक्य देवधार होना चाहिए। स्थानीय भाषा में इसे मिनसिंग नाम से भी बुलाते हैं।

कुमाऊं व गढ़वाल की ये ब्रिटिशकालीन सीमा रेखा है। यहां से नीचे को तीखी ढलान के बाद फैले मार्तोली बुग्याल में खरक बने हुये दिख रहे थे। घंटे भर की मेहनत के बाद हम आखिरकार मार्तोली में पहुंच गये थे। सूरज भी ढलान की ओर बढ़ रहा था और अब धूप का तीखापन गायब हो चुका था। यूं समझ लीजिये कि अब धूप में वो दम बाकी नहीं रह गया था, जो पस्त कर दे।

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हमने तय किया कि हम मार्तोली में पड़ाव डालने के बजाय आगे बढ़ेंगे। हमें उम्मीद थी कि आगे हमें कुछ अलग नजारे देखने को मिल सकते हैं, लिहाजा हम आगे बढ़ गये। पानी के छोटे-बड़े कुंडों के किनारे अभी भी बर्फ जमी हुई थी। यहां से अलग-अलग दिशाओं की ओर बढ़ते हुये रास्ते बिखरे हुये थे। दूर पर्वत श्रृंखलाओं में कहीं धाकुड़ी के पास का चिल्ठा बुग्याल दिख रहा था। हम अनुमान लगाकार चिल्ठा बुग्याल की दिशा में अपने दाहिने हाथ की ओर उतरते चले गए। मार्तोली बुग्याल अब पीछे छूट चुका था... उसकी मखमली घास पर शायद फिर कभी कोई हमारे जैसा ही यायावर भटकता हुआ पहुंच जाये और शायद वो यहां पड़ाव भी डाले।

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