निधि सक्सेना युवा चित्रकार-शिल्पकार, स्क्रीनराइटर और स्तंभकार हैं। लॉस एंजेलिस फ़िल्म इंस्टीट्यूट से फ़िल्ममेकिंग और फ़िल्म एंड टेलीविजन इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया से विभिन्न विधाओं में प्रशिक्षण लिया है। फ़िल्म डिवीज़न के लिए डॉक्यूमेंट्री व जयपुर दूरदर्शन के लिए टीवी शृंखला- "राग रेगिस्तानी' का निर्माण-निर्देशन। इन दिनों मुंबई में निवास। निधि ने हाल ही में एक फिल्म का निर्देशन किया है।
1952 भारतीय फ़िल्म उद्योग के लिए स्वर्णिम अवसर लेकर आया। अंतरराष्ट्रीय फ़िल्म फेस्टिवल भारत में आयोजित हुआ और भारतीय फ़िल्मकारों को पहली बार देश-विदेश के सिनेमाई समीकरण देखने समझने का मौका मिला। इटली की 'बाइसिकल थीफ' और कुरोसोवा के 'रोशोमन' जैसे काम नए विचारों के भारतीय फ़िल्मकारों में प्रेरणा का संचालन करने लगे। अब युवक बेताब थे, उनका मानस और रचनाधर्मिता उन्हें फ़िल्म निर्माण के आकाश में नई इबारतें लिखने को पुकार रहा था।
विचार देता, राह दिखाता सिनेमा
जॉन ऑफ आर्क ने तो ऋत्विक को पागल ही कर दिया। बैटलशिप पोतेमकिन और ओडेसा स्टेप्स के बारे में वे कहते थे- ना तो ऐसी कोई फ़िल्म अब तक बनी है, ना आगे कोई बना ही पाएगा। सर्गेई इन्स्तीन को तो वो फ़िल्मकारों का पिता मानते थे। कहते हैं थे, हमें फ़िल्म का `F’ भी नहीं आता, जो वे न होते! कई फ़िल्में ऋत्विक घटक की प्रेरणा बनीं, आईजेनस्टाइन की `बैटलशीप पोतेमकिन', पुदोवकिन की `मदर', चेकोस्लवाक फ़िल्म `क्राकातित', ओटाकर ववरा की `नीम बरिकदा'।
आईजेनस्टाइन की फ़िल्म `सेंस' और `फ़ार्म', पुदोवकिन की फ़िल्म टेक्नीक और एक्टिंग, आइवर मांटेगु का पेंग्विन द्वारा निकाला गया फ़िल्म पर लेखों का संग्रह और बेला बालास्ज का थ्योरी ऑफ़ द फ़िल्म, इन सबने ऋत्विक के सामने एक नई दुनिया खोलकर रख दी।
ज्यादातर फ़िल्में जो ऋत्विक को उद्वेलित करतीं, उस समय वो हिन्दुस्तान में प्रतिबंधित थीं। वे उन्हें चोरी-छिपे ही देखते थे। इन सब बातों ने भी ऋत्विक के फ़िल्मों से जुड़े तमाम अनुभवों में एक रोमांच भर दिया। वे अपने पसंदीदा फ़िल्मकारों के बारे में कहते--`वे न तो दंभी हैं और न ही उथले कलाप्रेमी। कमोबेश वो इस उतेजक माध्यम का अन्वेषण करने वाले अगुआ हैं।'
आईजेनस्टाइन, पुदोवकिन और दोवजेंकों ने फ़िल्मों की एक नई कलात्मक भाषा को खोजा। वे पहले फ़िल्मकार ही नहीं थे, प्रथम फ़िल्म विचारकों में भी थे। कहीं के भी फ़िल्म बनाने वाले को उन्होंने अभिव्यक्ति के लिए एक पूरा नया माध्यम दिया। हमारे नए फ़िल्मकार भावुकता के आंसुओं और भद्दे ओपेरा के दलदल में मस्त हैं पर बंबई समेत भारत के अन्य हिस्सों में फ़िल्मकारों की एक नई पीढ़ी संभावनाएं जगा रही है।
सेल्युलाइड पर सियासी सवाल
तैयारियां पूरी हुईं...अब समय था शो का...और ये तैयारियां कोई एक दिन की, एक फ़िल्म की तैयारियां नहीं थीं, एक ज़िंदगी की बात थी। 1952 में ही ऋत्विक की पहली फीचर फ़िल्म `नागरिक' तैयार हुई। पहली फ़िल्म का पहला दृश्य सदा के लिए ऋत्विक की पहचान बन गया। कैमरे की एक ओर से दूसरी ओर घूमती आंख ऊंची आलीशान इमारतों के बीच कच्ची बस्तियों और कीचड़ भरे जीवन का जायजा लेती है, जैसे-किसी ने आहिस्ता से उदासी भरा सिर घुमाकर चारों ओर का हाल देखा हो। इस बेहाल भीड़ में दूर से नायक...आंख के करीब आता। रामू नाम का रिफ्यूजी लड़का लाखों और युवाओं की तरह एक अदद नौकरी की तलाश में भटक रहा है, लेकिन न घर कहीं है, न नौकरी।
`नागरिक' में ऋत्विक ने बेहद बारीकी से बंटवारे से पहले और बाद के बंगाल का खाका खींचा। राशन की लाइन, भिखारियों के जमघट, भूखे बच्चे, बिलखती माएं- ये फ़िल्म एक राजनैतिक सवाल की तरह थी, बल्कि कितने बेघर लोगों के अनबूझे सवालों का जवाब भी थी, लेकिन इस फ़िल्म को सिरे से ख़ारिज कर दिया गया। यहां तक कहा गया कि यह फीचर फ़िल्म है ही नहीं, एक डॉक्यूमेंट्री है। हां! इसे फ़िल्म का दर्जा भी दिया गया, लेकिन ऋत्विक घटक की मृत्यु के एक साल बाद उनकी कई और फ़िल्मों के साथ।
`नागरिक' पच्चीस साल डिब्बाबंद, बल्कि तहखाना बंद रहने के बाद 1977 में आखिरकार दुनिया के सामने आई। अब तक तो ये देखने तक को उपलब्ध नहीं थी और इतने समय बाद सत्यजीत रे कह रहे थे- नागरिक, पथेर पांचाली से पहले बन गई थी, अगर ये उससे पहले रिलीज़ हो जाती, तब नए बंगाली सिनेमा के आगाज़ की ये पहली अलग तरह की फ़िल्म होती। बहरहाल, सिने विद्वान ऋत्विक की पहली फ़िल्म को सिरे से नकार चुके थे। इस बीच ऋत्विक बिमल रॉय के लिए `मधुमती' की पटकथा में व्यस्त रहे और छह साल के लंबे अंतराल के बाद उनकी अपनी दूसरी दो फ़िल्में-`बारी थाके पालिए' और `अजांत्रिक' बड़े परदे पर रजत किरणें बिखेरने को तैयार खड़ी थीं।
गांव से शहर और मनुष्य से मशीन तक
`बारी थाके पालिए' घर से भाग गए एक खूबसूरत चंचल बच्चे कंचन की कहानी थी, जो गांव के निर्मल घाटों से उठ महानगर के क्रूर बाज़ारों में भटक रहा था। फिर बारी आई अगली फ़िल्म की और ये अगली फ़िल्म समझिए अजूबा थी। इन दिनों युवा उन हॉलीवुड फ़िल्मों को लेकर बेहद उत्साही रहते हैं, जिनमें नायक मशीनों से काम ही नहीं करा रहा होता, अपितु मानवीय संबंधों का भी सरोकार और संचालन होता है। आज से 50 साल पहले ऋत्विक घटक यही कहानी खूबसूरती में ढाल, संवेदनाओं में पिरोकर फ़िल्म में ले आए थे।
जारी है...
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