'कोरोना, कॉमनसेंस और कानून'

Hafta Bol!'कोरोना, कॉमनसेंस और कानून'

उमेश तिवारी 'विश्वास'

उमेश तिवारी व्यंग्यकार, रंगकर्मी और मान्यताप्राप्त स्वतंत्र पत्रकार हैं। अपनी शर्तों पर जीने के ख़तरे उठाते हुए उन्होंने रंगकर्म, पत्रकारिता, लेखन, अध्यापन, राजनीति से होकर गुज़रती ज़िंदगी के रोमांच को जिया है। रंगकर्म के लेखे-जोखे पर 2019 में 'थिएटर इन नैनीताल' नाम से किताब छप चुकी है।

इधर कोविड ज्ञान को लेकर जन-जन में बड़ा कन्फ्यूजन हो गया है। देश भर में महामारी कानून लागू है, पर बंगाल में बिन मास्क देह-रगड़ रैलियां चल रही हैं। उन्हें देखने से लगता है कि बंगाल में सरकार बनाने को कोरोना भी उतना ही कटिबद्ध है, जितना प्रधानमंत्री! ममता दीदी को समझ नहीं आ रहा कि जनता को कोरोना का ‘भैक्सीन’ लगवाये या बीजेपी का! वैसे दिल्ली से आने वाला हर माल अब 'कमल छाप' नजर आता है। वो चाहे चुनाव आयोग हो या सुरक्षा बल।

चुनाव आयोग भी इस ‘खेला’ की एक पार्टी है, जिसे अपनी ‘छेड़-छाड़ प्रूफ ईवीएम’ में वोट डलवाना है, पर मुश्किल ये है कि कर्मचारी कोरोना प्रूफ नहीं हैं। जनता असमंजस में है, रैलियों में कोई कोविड, मास्क या दो गज दूरी की बात ही नहीं कर रहा। इधर बूथ पर ‘ई-वी-यम’ का बटन भी दस्ताने पहनकर दबाना है! क्या करें, वक्त ही ऐसा है, उंगलियों पर महामारी का ‘कोड’ जो चिपका है।

विश्व स्वास्थ संगठन हैरान है। वहां कोरोना क्यों नहीं फैल रहा। कोविड विषाणु और डेमोक्रेसी का भी बंगाल में कोई गठबंधन तो नहीं! ऐसी कन्फ्यूजन की अवस्था में कॉमनसेंस का महत्व क़ानून के मुक़ाबले बहुत बढ़ जाता है। पिछले भारतीय नववर्षों में पके कुछ क़ानूनों में कॉमनसेंस का तड़का भी नहीं लगा। पुलिस आस-पास न हो तो वह किया जाए, जो कॉमनसेंस से ठीक लगे।

परेशानी यह है कि देश में पढ़े-लिखे तो हर गली में हैं, पर कॉमनसेंस वालों का टोटा 74 साल बाद भी बना हुआ है। पिछले बरस प्रधानमंत्री ने कहा ताली बजाना अपनी बालकनी में, आप थाली लिए उतर आए गली में। ‘जय श्रीराम’ वाला जलूस निकाल कर दिन-भर के क्वारेन्टाइन का 'फ्रेंकेस्टाइन' कर दिया।

आर्डर था कि मेल, मुलाकात, ख़रीद-फ़रोख़्त में दो गज की दूरी बनाकर काम चलाएं। आपने सब्जी वालों को दौड़ा दिया। सब्ज़ी के ठेले वाले को आपने गले तो नहीं लगाया, अलबत्ता अपना मास्क गले तक खिसका लिया। अठन्नी के लिए मोलभाव करते थूक के इतने फव्वारे छोड़े कि सूखती सब्ज़ियों में हरियाली आ गई! टमाटर छांटते आपके हाथों ने जैसे हर किसान के गाल थप-थपा दिए। कमीज़ में छुपी आपकी थुलथुल तोंद ने ठेले का कोना-कोना रगड़ मारा। अगर कोरोना वहां छुपा हो तो आपके कपड़ों पर विराजमान हो नहीं गया होगा? दो रुपल्ली का डिस्काउंट लेकर जो तीर आपने मारा, वो कॉमनसेंस की अर्थी निकालने को काफ़ी था...!

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इधर, लॉकडाउन भी एक आचार संहिता टाइप ही क़ानून है, जो सब पर समान रूप से लागू नहीं होता! इसको कोई ‘भब्य पुरुष’ प्रातः काल पेल देता है और जरूरत के हिसाब से महीनों भर-भरा कर प्रयोग किया जाता है। यूपी पुलिस को भब्यतम की जुगाली से बना क़ानून ख़ूब याद रहा कि घर की लक्ष्मण रेखा नहीं लांघनी है। फलस्वरूप उसने पैदल चलते आदमी को मुर्ग़ा बना दिया और बस में सवार की मुर्ग़ी बना ली। कॉमनसेंस बोला- ‘लक्ष्मण रेखा लांघ आया है, दंड तो मिलना ही चाहिए!’ ...मिलना चाइये कि नईं ....’ अब कौन बताये कि अरे भाई, दंडकारण्य में उसकी कोई कुटिया हो, तो रेखा होगी ना... कुटिया भी हवाई, रेखा भी हवाई,  बस बनवास असली! जिसको भुगत कर गांव का अपराधी लौट आया, उसे मारने-कूटने की आवश्यकता कहां थी... कॉमनसेंस हो तो बात करें न!

अपने उत्तराखंड के सरकारी कॉमनसेंस की बात किये बिना बात अधूरी रह जायेगी। तालाबंदी के बीच किसी ने 6 घंटे दुकानें खुलवाने का आर्डर करवाया। खरीददार को दुपहिए पर अकेले जाने की अनुमति मिली, परंतु चार पहियों पर नहीं। भिंज्यू, फूफा अड़ गए - ‘ना ! कार नहीं चलेगी, उसमें 4-5 सीटें होती हैं।’ भिना, 'टायरों को घर पर ही रहना है या आदमी को... गाड़ी चलाने को सम-विषम फार्मूला लाये, वही केजरी वाला। पर उसको सोमवार-मंगल के बजाय तिथियों पर आधारित कर दिया।'

लोग अखबारवालों से पूछें- ‘भाई साब दो से किसको डिवाइड करना है। डेट की इकाई, दहाई या डेट और मंथ के जोड़ को।’ अब भला वो ख़ुद समझ पाये हों तो बताएं! अभी रात का कर्फ्यू लगा है, अपन उत्तराखंडी तो वैसे ही भूत के डर से रात को निकलते नहीं। यह कहीं रात्रि भ्रमण पर निकले करोना को भूत के हाथों मरवाने का कॉमनसेंसी आईडिया तो नहीं! कौन जाने... सरकार भौत ही काॅमनसेंसी काम जो कर री ठैरी!

खैर, इस ‘हफ्ता बोल’ में मेरी मानो, तो मित्रो अभी उत्तराखंड में हम सबको सोशल डिस्टेंसिंग की आवश्यकता है, 'कॉमनसेंस डिस्टेंसिंग' की नहीं। 2022 में जब चुनाव आएंगे तब देखा जायेगा। साथ ही एक विनम्र निवेदन, यदि है तो अभी पूरा प्रयोग कर डालो, कॉमनसेंस बचा कर रखने की कोई तुक नहीं बनता। हो सकता है अगला कुम्भ दिल्ली स्वयं आयोजित करे, तब बक्शे में धरकर भी अपने काॅमनसेंस का क्या कर लोगे! चलो फिर, मिलेंगे हां...

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