अशोक पांडे साहब सोशल मीडिया पर बड़े चुटीले अंदाज में लिखते हैं और बेहद रोचक किस्से भी सरका देते हैं. किस्से इतने नायाब कि सहेजने की जरूरत महसूस होने लगे. हमारी कोशिश रहेगी हम हिलांश पर उनके किस्सों को बटोर कर ला सकें. उनके किस्सों की सीरीज को हिलांश डी/35 के नाम से ही छापेगा, जो हिमालय के फुटहिल्स पर 'अशोक दा' के घर का पता है.
“सूरज स्वर्ग के उस तरफ जा रहा था। धरती गर्म थी। धरती पर बोई गयी, उगी हुई और काटी जा चुकी चीजों की गंध थी– जो फिर से समाप्त हो चुकी थी। धरती पर जीवन की, जीवन के सतत निर्माण और पुनर्निर्माण की गंध थी ...”
याद रह जाने वाले गद्य का यह खूबसूरत टुकड़ा 'लस्ट फॉर लाइफ' के उस हिस्से से है जहां माया नाम की एक खूबसूरत स्त्री विन्सेंट वान गॉग से मिलने आती है। दरअसल माया कोई है ही नहीं। लेखक इरविंग स्टोन की कल्पना से उपजी माया खुद विन्सेंट की कला है। वह विन्सेंट की कला की अमरता भी है। यह सोचना ही कितना आकर्षक है कि आपको अमर बना सकने का माद्दा रखने वाली कोई भी शै आपके सामने खूबसूरत माशूक का रूप धर कर आये और खुद को आपको सामने अर्पित कर दे। किताब में ऐसे बहुत सारे मरहले आते हैं, जहां आप हैरत करने लगते हैं कि किसी दूसरे के जिए जीवन को जस का तस शब्दों में ऐसे कोई कैसे ढाल सकता है।
जीवनियां और आत्मकथाएं बहुत आकृष्ट करती रही हैं और मेरे पुस्तक-संग्रह का एक बड़ा हिस्सा उनसे बना है। अभिनेताओं, खिलाड़ियों, कमेंटेटरों, लेखकों, चित्रकारों, मसखरों, पर्वतारोहियों, जासूसों से लेकर दार्शनिकों-सिपाहियों की जीवनगाथाएं पढ़ चुकने के बाद अगर मैं इस लिस्ट में ऐसी किसी भी किताब को जगह नहीं दूंगा तो बेईमान कहलाऊंगा। इस सूची में जगह लेने के लिए इस किताब को दो और किताबों– इंगमार बर्गमैन की आत्मकथा ‘द मैजिक लैंटर्न’ और अकीरा कुरोसावा की ‘समथिंग लाइक एन ऑटोबायोग्राफी’ – से कड़ा मुकाबला करना पड़ा।
विन्सेंट वान गॉग जैसे कलाकार की जीवनी लिखना बहुत बड़ी चुनौती रहा होगा। एक निहायत बिखरा हुआ, लेकिन विराट जीवन जीने के बावजूद जितना अनुशासन उसने अपनी कला के साथ बरता उस दोहरेपन को तटस्थ होकर एक किताब में समेटना ख़ासा मुश्किल रहा होगा।
इरविंग स्टोन खुद विन्सेंट के जाने के तेरह साल बाद पैदा हुए थे और जब उन्होंने इस किताब को लिखना शुरू किया था, विन्सेंट को मरे करीब चालीस साल हो चुके थे। यह एक सच्चाई है कि किस्सों और अफवाहों की भूखी दुनिया में किसी भी मृत व्यक्ति को लेकर इतने अरसे में बहुत सारे सच-झूठ स्थापित हो चुके होते हैं। जाहिर है विन्सेंट के जीवन में घटी एक-एक घटना के दर्जनों संस्करण तब तक बन चुके होंगे।
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सत्ताईस-अट्ठाईस साल के युवा इरविंग स्टोन ने कुछ साल यूरोप में बिताने और शोध कर चुकने के बाद ही विन्सेंट की जीवनी लिखने का मन बनाया था। कच्चे माल के सबसे विश्वस्त स्रोत के तौर पर उन्होंने विन्सेंट और उसके भाई थियो के बीच चले पत्रव्यवहार पर निर्भर रहना तय किया था। इसके अलावा विन्सेंट से कैसा भी सम्बन्ध रख चुके जितने लोगों से मुलाक़ात या पत्रव्यवहार संभव था, वह किया गया।
अपने शोध के दौरान इरविंग स्टोन ने सुन रखा था कि अपनी मौत से दो साल पहले एक अजीब भावनात्मक क्षण में विन्सेंट ने अपना कान काट कर एक वेश्या को तोहफे में दे दिया था। दिसंबर 1888 में घटी इस घटना के गवाह डाक्टर फीलिक्स रे ने 1930 में इरविंग स्टोन को बाकायदा एक चिठ्ठी लिख कर इस घटना की पुष्टि करते हुए बताया कि उन्हें विन्सेंट का पूरा कान काटना पड़ा था। इसके बाद ही स्टोन ने इस घटना को किताब में जगह दी।
1931 में किताब पूरी हुई और सात प्रकाशकों ने इसे छपने लायक न मानते हुए इसकी पांडुलिपि को वापस किया। अंततः तीन साल बाद किताब छपी और उसके बाद जो घटा वह किताबों की दुनिया के इतिहास का हिस्सा बन चुका है।
इधर के कुछ वर्षों में ऐसे शोध हुए हैं, जिनमें इरविंग स्टोन की इस किताब में वर्णित कई घटनाओं की सच्चाइयों पर संदेह जताया गया है। इन संदेहों में दम हो सकता है, लेकिन विन्सेंट की कला उसके जीवन की तफसीलों से कहीं बड़ी और पायेदार चीज है।
पिछले सौ से भी अधिक सालों में विन्सेंट वान गॉग दुनिया का सबसे महबूब कलाकार बन चुका है। उसे लेकर गीत रचे गए हैं, कोई पचास फ़िल्में और डॉक्यूमेंट्रीज़ बन चुकी हैं, सैकड़ों किताबें लिखी जा चुकी हैं और असंख्य शोध लगातार हो रहे हैं। फिर भी ‘लस्ट फॉर लाइफ’ में कुछ तो है जो यह अपने प्रकाशन के लगभग नब्बे सालों बाद भी दुनिया में सबसे ज्यादा बिकने और पढ़ी जाने वाली किताबों की सूची में अपनी जगह बनाए रखती है।
विन्सेंट को जानना चाहते हैं, उसके सूरजमुखियों से दोस्ती का मन करता है या उसके गाढ़े ब्रश-स्ट्रोक्स के पीछे छिपी बेचैन उंगलियों की दरदरी छुअन को महसूस करना चाहते हैं तो इस किताब से शुरू कीजिये।
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