मक़बूल और मां

आज रंग है!मक़बूल और मां

सुमित मिश्रा

सुमित मिश्रा की यात्रा बीएचयू से शुरू हुई और अब मुंबई पहुंच गई है। वो कला के पारखी भी हैं और खुद एक कलाकार हैं। कैनवस पर उनके स्ट्रोक्स की अपनी दुनिया है, अपने रंग हैं। कैनवस पर रंगों के अलावा वो फिल्मों का निर्देशन इन दिनों कर रहे हैं।  'हिलांश' में वो अपने कॉलम 'आज रंग है' के जरिये पाठको को कला की 'महीन' और खूबसूरत दुनिया तक ले चलेंगे।

कलकत्ता दिसम्बर 1980, टाटा सेंटर, मक़बूल के चित्रों की प्रदर्शनी। बंगाली, बिहारी और पंजाबी औरतें… रंग-बिरंगी साड़ियों में लिपटे एक स्याह बैकग्राउंड पर सफ़ेद साड़ी वाली "नारी आकृति" को निहार रहे थे। नहीं इस आकृति में कोई चेहरा नहीं था, कोई भाव भी नहीं था, बस इसकी सिलवटों में छुपे थे छोटे-छोटे मासूम यतीम बच्चे। साड़ी के किनारे पर नीले रंग की दो धारियां थी और बिना किसी इंसानी जिस्म वाली आकृति को समझने में किसी को परेशानी भी नहीं हो रही थी। ये आकृति थी मदर टरेसा की।

मक़बूल के चित्रों में मदर टरेसा ही क्यों और वो भी बिना किसी चेहरे के?

एक संवेदनशील चित्रकार के चित्र फलक पर, कुछ भी यूं ही चित्रित नहीं होता। इस चित्र की अस्पष्ट परिकल्पना मक़बूल के मस्तिष्क पर बचपन में ही छप चुकी थी। डेढ़ वर्ष की उम्र में ही धारी वाले किनारे की मराठी साड़ी का पल्लू मक़बूल को छोड़ कर जा चुका था, जब मक़बूल अपनी मां के चेहरे को पहचानने की अवस्था में थे, तभी उनकी मां का इंतक़ाल हो गया था।

जब मक़बूल कूची से खेलने लगे तब तक यह पहचान मिट चुकी थी। मक़बूल जहां कहीं भी मराठी साड़ी देखते तो उसकी तहों में मां को ढूंढते। मकबूल ने 'डिमेलो' की “वीनस” में और “माइकल एंजेलो” की “पियेता” में मां की तलाश की, “लियोनर्दो” के “मोनालीसा” में और “पिकासो” के “मादमोज़ेल द आवीन्यो” में मां की छवि ढूंढी, लेकिन अफ़सोस मां की मराठी साड़ी वाली वो अस्पष्ट छवि मकबूल को कभी याद ही नहीं आयी।

मक़बूल थका नहीं, मक़बूल रुका नहीं। वो रुकता भी कैसे! मां के साड़ी के पल्लू की काल्पनिक छांव का एक टुकड़ा जो अपने साथ लिए भटक रहा था मक़बूल।

बात 1979 की है, कलकत्ता की एक धीमी और घुटन वाली गली में एक बुजुर्ग औरत सफ़ेद साड़ी पहने, पैर में रबर की चप्पल, बग़ल में मामूली सी छतरी लिए मातृत्व भाव से चली जा रही थी। उनके साथ दो-चार औरतें भी थीं, सब के सब सफ़ेद साड़ी में सर ढंके बड़ी विनम्रता से चली जा रहीं थीं।

मक़बूल भी उन्ही गलियों में कहीं स्केच कर रहा था। उस बुजुर्ग औरत को देखकर ना जाने मक़बूल को क्या ख़्याल आया कि वो भी धीरे-धीरे इस महिला के पीछे चलने लगा। कलकत्ता की बेबस बस्तियों से गुजरते हुए, दुःखी औरतों, अनाथ बच्चों से मिलते हुए आखिरकार उस बुजुर्ग महिला में उसे अपनी मां की धुंधली छवि दिख ही गयी। वो बुजुर्ग, विनम्र महिला कोई और नहीं बल्कि मदर टरेसा थी। फिर तो मकबूल ने मानों सारा प्रेम अपने एक ही फ्रेम में अपनी जादुई कूची से उतार दिया हो। मक़बूल ने अपनी मरहूम मां को कुछ इस तरह फिर से पा लिया था।
 

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