निधि सक्सेना युवा चित्रकार-शिल्पकार, स्क्रीनराइटर और स्तंभकार हैं। लॉस एंजेलिस फ़िल्म इंस्टीट्यूट से फ़िल्ममेकिंग और फ़िल्म एंड टेलीविजन इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया से विभिन्न विधाओं में प्रशिक्षण लिया है। फ़िल्म डिवीज़न के लिए डॉक्यूमेंट्री व जयपुर दूरदर्शन के लिए टीवी शृंखला- "राग रेगिस्तानी' का निर्माण-निर्देशन। इन दिनों मुंबई में निवास। निधि ने हाल ही में एक फिल्म का निर्देशन किया है।
(भाग-6 ) 1961 में ऋत्विक दा की फ़िल्म 'कोमल गंधार' प्रदर्शित हुई। पिछली फ़िल्म के अदाकार सुप्रिया चौधरी, बिजान भट्टाचार्य, अनिल चटर्जी फिर फ़िल्म में साथ थे। कहानी भी 'मेघे ढाका तारा' की अगली कड़ी...उसी जीवन की एक और बात-सी प्रतीत होती थी। नटी मंडली की जीवन यात्रा के बहाने फिर गुंथी थी ऋत्विक ने वह पुकार, जो बिछड़े घर की ओर जाती थी।
फ़िल्म शुरू होती और खुलता है, नाटक का परदा। नाटक भी वही कह रहा है, जो कहती हैं तमाम फ़िल्में। आज़ादी के नारों, देश के गौरव ग्रंथों के नीचे ढंप गई लाखों विस्थापितों की कराहें इस राग कोमल गांधारा में गूंज रही थीं। नायिका अनुसूया हैरान है नायक के आक्रोश पर। मन तोड़ आखिर उस रुखाई पर कहती है- 'तुम अकेले ही रहोगे, तुम्हारा कोई दोस्त नहीं हो सकता।'
और पद्मा किनारे छाए कोहरे को फलांगती उनकी नज़रें जब पूर्व की ओर ताकती बंधे देख रही हैं, तब नायक बताता है- 'मैं रुका हूं ना। जानती हो मैं क्या ढूंढ रहा हूं? पद्मा के उस तट मेरा घर...मेरा बचपन बीता वहां पर, जाने क्या धुंधला गया है, जो वह दिखता नहीं।'
फिर आई 1962 में 'स्वर्णरेखा', जिसके संग विरह की ये त्रयी पूरी हुई। 'स्वर्णरेखा' में भी वही, घर की तलाश...रिफ्यूजी कैंप में रेंग रही ज़िंदगी के बीच छोटी-सी बहन बड़े भाई से पूछती है-दादा! तुमने तो कहा था, यहां हमारा नया घर होगा। घर कहां है? तुम ढूंढ लाओ जल्दी...यहां रहते अच्छा नहीं लगता, हम जल्दी अपने घर चलें।' ...और बड़ा भाई निकल जाता है...घर की तलाश में, घर जो कहीं है ही नहीं। न बहन को धोखा देता है, न खुद को। दिल को समझाने का एक बहाना। इसमें विभाजन, विस्थापन, मानवता और प्रेम के ध्वंस के लिए एक उजाड़ हवाई पट्टी के रूपक की रचना की गयी है। जगह-जगह द्वितीय विश्वयुद्ध में नष्ट हुए युद्ध विमानों का मलबा।
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नदिया, ज़मीन और पहाड़ खोजता मन
'स्वर्णरेखा' में युद्ध के विध्वंस के बाद उजड़े मैदान किसी और ही काल के प्रतीत होते हैं और उनमें उजाड़ हवाई पट्टी, युद्ध, मलबे के ब्यौरे, रहस्यमय निर्जनता दुनिया के सूनेपन और असंवेदन से डरा देती है। इन मलबों के बीच खेलते बच्चे पुनः सृष्टि, पुनः निर्माण की मासूम-सी बुझ जाने वाली कोंपल से लगते। कोमल गांधार की वह रेल पटरियां, जिन्होंने लोगों को मिलवाने की जगह सदा के लिए बांट दिया, उन पटरियों पर तेज़ी से भागती कैमरे की आंख...। इतनी तेज़ गुजरती कि दिल तोड़ दे और फिर पटरियों के आखिरी बिंदु पर जा यूं रुक जाना कि दिमाग झटका खा जाए। पटरी पर भागती ट्रेन कहीं नहीं थी, बस दौड़ने का अहसास और अनंत से आते हांफते आखिरी स्वर- 'दुहाई आली, दुहाई आली, दुहाई आली!'
ऋत्विक घटक भौतिक वस्तुओं से एक आंतरिक, मानसिक दृश्यालेख की सृष्टि करते हैं और उनके मानस की बात फ़िल्म कैनवास पर दर्दनाक तस्वीरें उकेरती हैं। ऋत्विक की हर फ़िल्म ही में तो सभी चीख रहे हैं, कभी घर वापसी के लिए, अपने नदिया, भूमि, खेत, पहाड़ सब ढूंढते हुए...घर की दीवारें भी याद करते, गाड़ी से भी सम्बन्ध रखते। सभी घर की निर्मल छांव से सीधे उठ दुनिया के बाज़ार में खड़े हो गए हैं और उस बाज़ार के मोड़-मोड़, दर-दर पर घर ढूंढ रहे हैं।
'मेघे ढाका तारा' में नीता का लौटने को वो हाड़-तोड़ क्रन्द, जिसमें पूरी प्रकृति भी चीखती प्रतीत होती है। 'बरी थाके पालिए' का किरदार भी कहता है- 'मेरी मां चली गई, क्या वो कभी वापस आएगी। इस देश में कई बार मिट्टी से लथपथ मुझे मां दिखी, फिर बाद में कई गलियों में, कई सड़कों पर...मैं उसके पास कैसे जाऊं? मैं अपने घर से भाग आया और इस देश को मेरी ज़रूरत नहीं।'
जुक्ति तकको और गप्पो का नीलकंठ दो बेघर, बे-संसार बच्चों को अपने घर ले आता है और कहता है- 'ये बांग्ला जीव हैं। मैं कैसे इन्हें सड़क पर भटकने को छोड़ देता?' कोमल गंधार की तो शुरुआत ही इन संवादों से है- 'मैं पद्मा के किनारे जन्मा, उसे छोड़ कैसे जाऊं?'
यह बुड्ढा कभी सुनेगा नहीं...ताकि रोटी मिल सके! कोलकाता बहुत बड़ा खूबसूरत शहर है। कोलकाता में बचपन से रह रही नायिका अनुसूया नदी किनारे माझी के गीतों के बीच नायक से कहती है- 'जानते हो, ये नदी पद्मा? नदी के उस ओर मेरा घर है।'
किरदारों में अपनी ज़िंदगी के दृश्य-संवाद
ऋत्विक के हर किरदार उन्हीं के जीवन संवाद बोलते। वे अपने किरदारों के सहारे हर बार अपने जीवन अंश पुनः जी लेते, मन में विचार आते, अतीत में भटक आते घर तक विचर आते। बचपन की छोटी-छोटी यादों से बुना ऋत्विक का मन, जीवन की ऐसी ही छोटी घटनाओ को इकट्ठा कर गढ़ता था फ़िल्म। उनके देस के पेड़-पहाड़, आकाश, नदिया, जैसे सब उनकी यादों की रील में चले आए थे और सिनेमा के परदे पर जादू करते थे। वे गल्प दृश्यों के माहिर थे, जिनकी बुनियाद बचपन की पहली नजरों के पहले नज़ारों के सिवा कहीं हो ही नहीं सकतीं।
स्वर्णरेखा का वो महाकाव्यात्मक दृश्य, जिसमें नायिका बालपन की अठखेलियों में खोई-खोई सुनसान लंबी सड़क से गुजर रही है और अचानक जंगलों से निकल काली का रूप धरे बहरूपिया आ जाता है। सीता के साथ दर्शक भी चौंक पड़ते हैं और डर का वह क्षण हमेशा के लिए किसी अशुभ संकेत की तरह दिल में घर कर जाता है। बहरूपिये का इस तरह प्रकट होना पुराण कथाओं की याद दिला देता है, जहां जादू की, रहस्य की सनसनीखेज बात होती थी। दरअसल, ऋत्विक घटक ऐसे दृश्य-विधानों के जादूगर थे। उनकी सभी फ़िल्मों में महाकाव्यात्मक आयामों वाले बिम्ब मिलते हैं।
इसी तरह 'बरी थाके पालिए' में भी मासूम कंचन घर से निकल बाहर दुनिया में पांव रखता है, तो बहरूपिए से टकराता है जो भेस बदल बच्चों के मनोरंजन से निर्वाह करता है। सब जादुओं और जादूगरों की दुनिया है। 'जुक्ति तकको' और 'गप्पो' में भूसे की मचान पर बैठे निरीह बूढ़े के सामने मृत्यु तांडव नाचती है। विपदा ठीक भूचाल की तरह हर किरदार के सामने आती है। ऋत्विक के सिने संसार और ज़िंदगी के आम किरदारों के बीच कला की भोंथरी दीवार नहीं, रूपकों का सुन्दर रास्ता था।
'मेघे ढाका तारा' की नीता का पिता कीट्स की कविताओं और आराम कुर्सी के सपने में जीता है। जीवन का सार महान कविताओं और प्रकृति के जागते जादू को समझता है। 'अजांत्रिक' का अनिल गाड़ी के टूटने पर ऐसे बिलखता है, जैसे किसी बेवफाई पे रोना आए! नीता की ललक के सामने प्रकृति शोक नृत्य करती है। सभी जैसे घर से भागे हुए हैं और फिर कहीं टिक नहीं पाए, जंगल-जंगल भटकते किरदार।
जारी है...
पहला भाग : बिछड़े घर की तलाश में उम्र भर सफ़र
दूसरा भाग : मुझे चिल्लाना है, कहने का मोह है... सुन लो!
तीसरा भाग : प्रोटेस्ट का फॉर्म था सिनेमा, सेल्युलाइड पर चमके सियासी सवाल
चौथा भाग : जिस फिल्म को मेलोड्रामा कहकर 'भारत' ने नकारा, वो वर्ल्ड सिनेमा में बनी कल्ट!
पांचवा भाग : बतौर निर्देशक दो बार नकारे जा चुके थे ऋत्विक घटक, फिर लेकर आये वो फिल्म जो बन गई कल्ट
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