लोक तंतर का पुलिसिया मंतर

Hafta Bol!लोक तंतर का पुलिसिया मंतर

उमेश तिवारी 'विश्वास'

उमेश तिवारी व्यंग्यकार, रंगकर्मी और मान्यताप्राप्त स्वतंत्र पत्रकार हैं। अपनी शर्तों पर जीने के ख़तरे उठाते हुए उन्होंने रंगकर्म, पत्रकारिता, लेखन, अध्यापन, राजनीति से होकर गुज़रती ज़िंदगी के रोमांच को जिया है। रंगकर्म के लेखे-जोखे पर 2019 में 'थिएटर इन नैनीताल' नाम से किताब छप चुकी है।

मैं अमरीक्का में हूँ जहाँ आजकल अपने मुलुक जैसे ही जम्हूरियत की दुम सीधी करने वाले काम हो रहे हैं। अब ये पता नहीं मैं यहाँ आया हूँ या लाया गया हूँ! मुझे लगता है मुझे तो अमरीकी लोकतंत्र ने बुलाया है। जो भी हो, ये 6 जनवरी राष्ट्रपति बाइडेन की जीत का अमरीकी काँग्रेस में प्रमाणीकरण का दिन था। हार मानने में हुज्जत कर रहे ट्रम्प ने उपराष्ट्रपति पेंस को पटाने की बड़ी कोशिश करी कि 'यार जब लिफ़ाफ़ा खोलियो तो बोल दियो कि ट्रम्प साब जीत गए।', एलबीडब्ल्यू में बेमानटी की गुंजाइश हो सके पर क्लीन बोल्ड हो गए राष्ट्रपति को नॉट आउट कोई कैसे दे दे? ऊपर से 5 दर्ज़न से ज़्यादा मुक़द्दमे हार कर थर्ड अंपायर से भी उंगली उठवा चुके सो अलग। 

.. बस खुन्नस में आ गए ट्रम्प। अपने समर्थकों से संसद पर धावा बुलवा दिया। अपनी टीम की बैटिंग लेकर जैसे गज्जू फील्डिंग से मुकर जाये और साथ के लौंडे तड़ी दिखा कर ब्यट लगी बॉल लेकर टिरी हो लें। नैनीताल-हल्द्वानी में होता तो किसी क्लासफेल्लो से चकल्लस में मुब्तिला हो जाता.. भीड़ और पुलिस की अड़ागुड़ी देखकर भी मुझे तो यार अपने छात्र आंदोलन वाला दौर ही याद आया। कैपिटल हिल प्रांगण में तैनात पुलिस वाले बेशक गहन प्रशिक्षित होंगे, उनके डंडे भी उन्नत क़िस्म के होंगे पर ट्रम्प के भारी-भरकम गणों को काबू करने में उन्होंने अपने कौशल के दर्शन तो कराये नहीं। ऐसा लगा जैसे फुलवारी से भंवरे उड़ा रहे हों। इनसे धाकड़ तो अपने सीआरएसटी स्कूल के चिंतामणि चौकीदार थे, 5 मिनट के अंदर कैपिटल सनीमा में इंग्लिश पिच्चर की हीरोइन को आँखों में बसा रहे लौंडों को पीडी पंत सर के हुजूर में पेश कर दें।

यहाँ की पुलिस के साथ अपने छात्र आंदोलन के अनुभव बांटने की विकट इच्छा हुई, पर दिल की दिल में रह गई, बात न होने पाई। मैं उनको बताना चाहता था कि अपने वहाँ कैसे डंडे की लंगड़ी लगा, मात्र एक धक्के से बग़ैर सीटों वाली पुलिस वैन के अंदर ठेला जाता है। बंदे को पता भी न चले वह कब 3-4 फुट ऊँची लोहे की सीढ़ियों के ऊपर से तैरता फुटबाल की तरह गोल पोस्ट के भीतर पहुँच गया। मतबल ये कि जहाँ तक हमारी पुलिस की ट्रेनिंग का सवाल है उन्हें मात्र डंडे की लंगड़ी और धक्का मारने की तकनीक में रवां होने की ज़रूरत होती है। हाँ, फील्ड में उतरते वक़्त उनका शरीर अंतरिक्ष यात्रियों जैसी पोशाक से ढक दिया जाता है जिससे वो थोड़े डरावने दीखने लगते हैं, ख़ासकर पहाड़ के छात्रों को। वैसे छात्रों से हमारी पुलिस का प्रेम संबंध अखिल भारतीय है। जेएनयू, बीएचयू, एएमयू या जामिया के छात्रों से पूछ कर देख लें।

अपने उत्तर छात्र काल में भी जिस पुलिसिया लाघव का चश्मदीद रहा उसमें अपने उत्तराखंड का रणवीर एनकाउंटर और दो-एक काउंटर छोड़ दूं तो दिल्ली पुलिस का प्रदर्शन अविस्मरणीय है। वो डंडे से काम कम ही लेती है। पहले अंग्रेज़ों के ज़माने की धारा 144 पेल कर सीटों वाली गाड़ी में बिठाती है और थाने ले जाकर नई देशभक्ति वाली धारा लगा देती है। उनके मुक़ाबले अमरीका के पुलिस वाले अपने होमगार्ड के जवानों जैसी धक्का-मुक्की करते लगे।

ट्रम्प साब के कुछ समर्थक 'आज दो अभी दो', 'जो हमसे टकरायेगा ..'; उत्तराखंड राज्य आंदोलन टाइप आक्रामकता दर्शाते हुए दनदना रहे थे तो कुछ दिल्ली वाले कपिल भइया जैसी हूल दे रहे थे। पर पुलिस मानो कह रही हो 'रुक जाओ सुरेन्दर ...मैं कहती हूँ आगे मत बढ़ना, प्लीज।'

अनुभव तो ट्रम्प साब से भी बांटना था, जिन्ने पेंसिल्वेनिया एवेन्यू पर अपना 'जनवासा'; बनवाया था। बारातियों से बोले तुम कैपिटल हिल पहुँच कर तब तक चाय-पानी करो, मैं पुरोहित जुलियानी के साथ पीछे-पीछे आ रहा हूँ पर सटक लिए वाइट हाउस को। फिर क्या था बिना दूल्हे की बारात कैपिटल हिल पर चढ़ गई। वहाँ टेंट हाउस वाली राजगद्दी भी नहीं थी कि ट्रम्प साब को बिठाने को हथिया लेते। कुर्सी थी तो पहले से ही खार खाये बैठी स्पीकर नैंसी मैडम की। झगड़ा तो होना ही था।

टूट-फूट हुई, कुछ जानें गईं और कोर्ट-कचहरी वाला मामला बन गया। दिल्ली पुलिस होती तो बाहर ही हिसाब कर देती। ख़ैर, ये कमी तो नेताओं की रही, हमारे वाले होते ... तो कहते 'देश के गद्दारों को, आँख मारो सालों को'; इससे ये पता नहीं चलता कि गद्दार कौन हैं और अपने सालों को आँख मारने में कैसा अपराध! काम सटीक हो जाता और कोर्ट भी बुद्धू बन जाती। ..पर बात नहीं हो सकी। दिल्ली फ़ोन करके ही पूछ लिया होता ट्रम्प साब !

ख़ैर, यहाँ अपना एक भाई भारत का भी झंडा उठाये दिखा। मैंने पूछ लिया 'हेलो ! फ्रॉम इंडिया?' 'आई एम आल्सो फ्रॉम इंडिया'; उसने मुझे झाड़ दिया, 'तो अंग्रेज़ी क्यों बोलता है? यहाँ से निकल ले, यहाँ पुलिस वाले काले को देखकर सांड जैसा भड़क जाते।' मुझे भी ग़ुस्सा आ गया... 'बेटा तू कौन सा गोरा है और ऊपर से हमारे देश का झंडा लेकर बलवाइयों के साथ चल रहा है। मोदी जी का नाम ख़राब कर रहा है।'; मेरी बात का उसपर जादुई असर हुआ।

'नाराज़ क्यों होता है, बक्त-बक्त .. ब्रदर-ब्रदर। बहुत सारा झंड़ा देखकर मेरे को लगा हमेरा इंडिया पीछे नहीं रहना, इसलिए मैं रिस्क ले लिया..'; तभी गोरों का रेला उसे धकियाता हुआ साथ ले गया। मैं झंडे और डंडे के बेहतर उपयोग पर उसे कुछ राय देना चाहता था पर दूसरे सुझावों की तरह ये भी हलक में ही रह गया। आजकल अच्छी सलाह भी अंदर ही रैना चाहे।

Leave your comment

Leave a comment

The required fields have * symbols