कश्मीरी शख्स ने कहा- 'बंदूक छोड़ने की बात करने से पहले उठाने का कारण तो जान लीजिए!'

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कश्मीरियतकश्मीरी शख्स ने कहा- 'बंदूक छोड़ने की बात करने से पहले उठाने का कारण तो जान लीजिए!'

रेखा पाल

रेखा पाल एक पेशेवेर पत्रकार हैं. रेखा ने हाल ही में धारा 370 हटने और कोरोना काल के प्रतिबंध कम होने के बाद कश्मीर की यात्रा की है. रेखा ने अपने दिलचस्प अनुभव हिलांश के साथ साझा किए हैं. ये पहली कड़ी है. रेखा पाल की कश्मीर यात्रा की अगली किश्त जल्द हिलांश पर पब्लिश होगी. 

सोनमर्ग से हमारी वापसी हो चुकी थी, लेकिन बावजूद इसके अभी ऐसा कितना कुछ बाकी था, जो अधूरा सा छूट गया। सब कुछ कितनी जल्दी-जल्दी हो जा रहा है। दिन तेजी से गुजर जा रहे हैं। ऐसा लग रहा है जैसे कश्मीर एक गहरा तालाब है और मैं एक प्यासी मुसाफिर, जिसका गला तर ही नहीं हो रहा था। कितनी कहानियां हैं कश्मीर की और फिर मैं तो कवल सतह पर देख पा रही थी। हर एक किरदार मानों खुद में ही कोई एक मुकम्मल कहानी हो!

मेरी सारी रात इस कशमकश में ही गुजरी कि पहलगाम की सुबह कैसी होगी? वहां कोई आतंकी हमला हो गया तो हम क्या करेंगे? वहां का माहौल कैसा होगा? क्या हमें वहां कुछ नया देखने को मिलेगा या वहां भी ऐसे ही पहाड़ और ऐसी ही बर्फ के सिवाय कुछ नया नहीं मिलने वाला! मेरे जेहन में कई सवाल एक साथ तैर रहे थे। अब भला इतने सारे सवालों के बाद नींद कहां से आ पाती! ...और वैसे भी स्वर्ग में भला कोई सोता है क्या!

अगली सुबह जब उठी तो घाटी में ठंड बरकरार थी। बाहर हवा तीखी और कंपा देने वाली थी। डल के किसी कोने से गुजरता हुआ एक शिकारा कोहरे को चीरकर बस अपनी मंजिल तक पहुंच जाना चाहता था। मैं बाहर निकलने के लिए बेसब्र थी, लेकिन मेरे 'प्रभु' को इससे क्या ख़ाक फर्क पड़ता! वो साथ भी होते तब भी उनका फोन घनघनाता रहता। पूरे दिन फोन में 'केम छो, सु छे?, सु थयो?' ...और इधर मैं और फैज़ साहब एक-दूसरे को देख कर फोन कटने का इंतजार करते। ख़ैर सुबह के 6 बज रहे थे। मेरा मन सुबह की सैर पर निकलने का था... कहीं खुले में चाय पीने को मन बेताब था। मैंने 'प्रभु'से पूछा- 'बाहर चलें? गज़ब की सुबह है!' 'प्रभु' ने सपाट सा रूखा जवाब आगे सरका दिया- 'सू छे... सोने दो यार। तुम्हीं जाकर देखो नज़ारे। तुम्हारा तो घूम-घूमकर मन ही नहीं भरता।' ये मेरे लिए ज्यादा अच्छी सुबह होने वाली थी, गोयाकि मुझे 'प्रभु' के साथ सैर करने के दौरान अब उनके बोझिल फोन कॉल के कटने का इंतजार नहीं करना था, मैं किसी भी दिशा में आगे बढ़ जाने के लिए आजाद थी।   

कश्मीर में सुबह के रंग यूं लग रहे थे मानों कोई बड़ा सा गुलदस्ता डल के किनारे रखा हो। इस गुजलार सुबह को भोगने मैं निकल पड़ी थी। रूम से बाहर निकलकर होटल के रिसेप्शन पर पहुंची तो वहां कोई नहीं था। कश्मीर आज भी उतना ही खूबसूरत है, जितना मैंने कभी स्कूल की किताब में पढ़ा था। कश्मीर उतना ही जवां है, जितना तस्वीरों में दिखता है और उतना ही सुरक्षित जितना मेरे पापा ने बताया था।

होटल से बाहर सड़क पर कदम रखते ही मेरी नजर कुछ बुजुर्गों और होटल के स्टॉफ पर पड़ी। ये सारे जाने-पहचाने चेहरे थे, जो पिछले कुछ दिनों से रोज ही हमें दिख जा रहे थे। वो उस ठंडी सुबह का इस्कबाल आग सेंककर कर रहे थे। धीरे-धीरे चोटियों पर धूप पसर रही थी, लेकिन घाटी में अभी भी किरणों का इंतजार था। मैंने उन सभी को देखकर एक बड़ी सी मुस्कान अपने चेहरे पर फैलाई और आगे बढ़ गई। इतने में एक बुजुर्ग बोल पड़े- 'आ जाओ बेटी.. इधर आग सेंक लो। ज्यादा दूर मत जाना, आर्मी वाला लोग पेट्रोलिंग करता है और फिर तुम्हें ऐसे देखेगा तो सौ सवाल पूछेगा।' सुबह कितनी ठंडी थी इसका अहसास कमरा छोड़ते ही हो गया था। कश्मीर में किसी ठंडी सुबह अलाव तापने का आॅफर हो तो उसे छोड़ा नहीं जा सकता। मैं उस टोली के साथ आग सेंकने बैठ गई।

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वहां दो बुजुर्ग थे, जिन्होंने गहरे भूरे रंग की फिरन पहनी थी। उनकी हाथों की सिलवटें और आंखों की झुर्रियों बता रही थी कि उन्होंने कितने ही पतझड़, सावन, बसंत और बर्फ के दिन इसी जमीन पर देख लिए थे। दोनों के हाथ में लकड़ी के गुलदस्ते जैसा कुछ सामान था, जिसमें वो कोयला डाल रहे थे और फिर उसे फिरन में छिपा लेते। असल में ये एक किस्म की अंगीठी सरीखी होती है, जिसका इस्तेमाल फिरन के अंदर गर्मी पैदा करने के लिए किया जाता है। इसे कांगड़ी कहते हैं।

मुझे बचपन में पापा का बताया हुआ किस्सा याद हो आया। वो हमें बताया करते थे कि कश्मीर में लोगों के पास ऐसे कपड़े होते हैं, जिसमें 'हीटर' लगा होता है, जो सुबह से शाम तक जलता रहता है...जलता रहता है...जलता रहता है।' असल में वो हीटर यही था और तब हम अपने पापा की इन बातों का मजाक उड़ाते हुए कहते थे- 'कितना फेंकते हैं यार पापा'। तब मना तो कर दिया था, लेकिन बचपन की वो स्मृति जेहन में बनी रही। न जाने कितनी दफा हीटर वाला कपड़ा ढूंढने की कोशिश की थी, जो आखिरकार कश्मीर में आकर मुक्कमल हुई। इस जादुई चीज का नाम है 'कांगड़ी'।

एक बुजुर्ग ने पूछने पर बताया कि कांगड़ी मिट्टी के एक गोल बर्तन पर पेड़ों की लचीली टहनियों से बनाई जाती है। इसे एक बास्केट की तरह बनाया जाता है और फिर इस मिट्टी के बर्तन में कोयला डालकर आग पैदा की जाती है। इसके बाद कांगड़ी को फिरन के भीतर रख दिया जाता है, जिससे गरमी मिलती रही।

अलाव सेंकने के दौरान वहां बातों का सिलसिला ही चल पड़ा और फिर मैंने आखिरकार वो सवाल पूछ ही लिया, जो हमें उत्तर भारत में कश्मीर का नाम आते ही सबसे ज्यादा सुनाई दिया जाता हैं मिलिटेंट! मैंने उनसे बुरहान वानी की लोकप्रियता को लेकर जानना चाहा... वो युवक मिलिटेंट बना और फिर कम उम्र में ही सुरक्षा बलों की गोली का शिकार हो गया। हालांकि, कम उम्र के बावजूद वो एक लोकप्रिय मिलिटेंट था और उसके जनाजे में लोग उमड़ पड़े थे। ये सब उत्तर भारतीय होने के नाते मेरे लिए चौंकाने जैसा था... एक आतंकी के जनाजे में भीड़ क्यों! ..लेकिन ये सवाल स्टेट पर भी सवालिया निशान लगाता है कि आखिर घाटी में नौजवान हथियार क्यों थामते हैं? दशकों से नासूर बन चुका सवाल आखिर मैंने वहीं के बाशिंदों के सामने उछाल दिया था।

मेरे सवाल के जवाब में वहां बैठा हुआ एक नौजवान बोल पड़ा- 'हमें अपनी ही जमीन पर डर-डर कर जीना पड़ता है। हमारे भाई लखनऊ, दिल्ली जैसे शहरों में कार्पेट और शॉल बेच कर कमाने के लिए जाते हैं तो वहां पर भी उन लोगों का एक्पीरियंस बहुत ही खराब होता है। लोग उनको आतंकी ही समझते हैं।' 

उस युवक की बात एक दूसरे नौजवान ने बीच में ही काटते हुए कहा- 'मैं कोरोना से पहले दिल्ली में था। लॉकडाउन से कुछ दिनों पहले ही श्रीनगर आया। अब पेट भरने के लिए मैडम कुछ तो करना पड़ेगा ही नहीं तो परिवार को कौन पालेगा।' ऐसा लगा जैसे पहले नौजवान को दूसरा नौजवान मुद्दे को भटकाता हुआ सा लगा, लिहाजा दूसरा नौजवान अपने काम को लेकर अपनी बात पूरी करता, पहले नौजवान ने दूसरे की बात को बीच में ही काटते हुए कहा- 'सब कुछ ठीक चल रहा था मैडम, पर 370 जो खत्म किया ना उसने सब चौपट कर दिया। अब देखो न लंबे कर्फ्यू से दुकानदारी सब ठप्प हो गया है। पॉलिटिकल ड्रामा, कर्फ्यू... ओर तो और हमारा तो मोबाइल भी बंद पड़ा हुआ है। ना जाने कैसे-कैसे दिन देख लिए हमने... आगे जाने क्या दिन देखने होंगे!' उस शख्स की बातों में अचानक उदासी पसरने लगी थी। वो कुछ देर के लिए चुप हो गया ओर बाकी सब उसे देख रहे थे, मानों इंतजार में हो कि 'कथा कहो यार कश्मीर की पूरी'!

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मैनें उन लोगों से पूछा कि 370 के बाद उनकी जिंदगियां कैसे बदल गई? इस पर दूसरे नौजवान ने सपाट जवाब दिया- 'मैडम ज़िंदगी सत्तानशीनों की बदलती है, हमारी तो वैसी ही है.. जैसे पहले थी। वही पुलिस, वही आर्मी, वही गिरफ्तारी, वही डंडे...' इस दफा युवक को टोकते हुए एक बुजुर्ग ने सवाल दागा- 'तुम बताओ बेटी। कानून जनता के फायदे के लिए ही लाए जाते हैं ना! अब 370 हटा दिया। हमारी ज़मीनें बिक जाएंगी। आधी जमीनों पर तो सरकार ही किसी ना किसी तरह कब्ज़ा कर लेगी और आधी पैसेवाले ले लेंगे। इस कुदरत की मेहर को लोग उजाड़ फेकेंगे। तुम पूछ रही थी न कि बुरहान वानी क्यों पॉपुलर है! असल में वो हमारे लिए ही लड़ता था। अब दोबारा कोई बुरहान वानी खड़ा नहीं होगा।'

लोग क्यों आतंकी का सपोर्ट कर रहे हैं? ये बात मेरे लिए और अधिक दिलचस्प थी। मैंने उनसे कहा- 'चाचा, एक बात बताओ। बुरहान वानी तो हिजबुल का आतंकी था। आप लोग उसे फिर क्यों पसंद करते हो? चाचा का जवाब था— 'कश्मीर की नई पीढ़ी के लिए बुरहान वानी लड़ा। वो हमारी ज़मीन बचाने के लिए लड़ रहा था। बंदूक छोड़ने की बात कहने से पहले यह सोचना चाहिए कि ये लोग बंदूक आखिर उठाए क्यों घूम रहे हैं?' 

मैं इस बात को समझने में नाकाम थी। मैंने पूछा- 'चाचा वो आतंकवाद का पोस्टर ब्वॉय और हिजबुल मुजाहिदीन के टॉप कमांडर्स में से एक था' इसका जवाब एक दूसरे बुजुर्ग ने दिया। उन्होंने कहा- 'बेटी हमें नहीं पता कि मीडिया वालों ने तुम लोगों को क्या दिखाया, पर वो तो कश्मीर के लिए ही लड़ता था। सरकार से भिड़ने के लिए तैयार रहता था। उसे तो मोहरा बनाया गया बेटी। वो यहीं का बेटा था। कितना कुछ किया वो हम लोगों के लिए, हमारे बच्चों के लिए। हम इसलिए बाहर के मीडिया वालों पर एतबार नहीं करते। सब झूठ-झूठ दिखाता है।' इस जवाब से एक बात तो साफ थी कि भारत के मुख्यधारा के मीडिया पर उन्हें रत्तीभर भी यकीन नहीं था... वो उसे सिवाय कश्मीर के खिलाफ प्रोपेगेंडा फैलाने वाले मीडिया के बतौर ही देखते हैं।

अब सोचिए कि टीवी के स्टूडियो में कश्मीर पर चलने वाली राष्टीय बहसें कितनी बेमानी होती होंगी, जिनमें आम कश्मीरियों तक को भरोसा नहीं है। कुछ देर के लिए मैं सन्न सी रह गई। कितना यकीन था उन्हें कि बुरहान उनके लिए लड़ रहा था, तब हमें जो उसके आतंकी होने का यकीन दिलवाया गया था...वो क्या झूठ था! सियासत सच को दबा जाती है। अलाव की आग सुलगनी बंद हो गई थी और मेरे भीतर के सवाल भी। मैंने उनसे कहा कि मुझे अब पहलगाम के लिए निकलना है और अगली दफा कभी कश्मीर आई तो उनके गांव घूमेंगे।

अब सोचिए कि टीवी के स्टूडियो में कश्मीर पर चलने वाली सो-कॉल्ड 'राष्ट्रीय बहसें' कितनी बेमानी होती होंगी, जिनमें आम कश्मीरियों तक को भरोसा नहीं है। कुछ देर के लिए मैं सन्न सी रह गई। कितना यकीन था उन्हें कि बुरहान उनके लिए लड़ रहा था, तब हमें जो उसके आतंकी होने का यकीन दिलवाया गया था...वो क्या झूठ था! सियासत सच को दबा जाती है। अलाव की आग सुलगनी बंद हो गई थी और मेरे भीतर के सवाल भी। मैंने उनसे कहा कि मुझे अब पहलगाम के लिए निकलना है और अगली दफा कभी कश्मीर आई तो उनके गांव घूमेंगे। मैंने उन सबसे मुस्कुरा कर अलविदा कहा और एक दफा उस नौजवान के चेहरे पर नजर मारी, जो सियासत से नाउम्मीद हो चुका था।

होटल की ओर वापसी में मेरे जेहन में वो तस्वीरें कौंध गई थी जो कुछ वक्त पहले ही मैंने अपने डेस्क पर देखी थी.. बुरहान के जनाजे की तस्वीरें। लोगों के उसे चाहने के बीच बतौर स्टेट भारत की भूमिका को लेकर मैं कई तरह के सवालों का जवाब खुद से ही तलाश रही थी। मैं उस न्यूजरूम का हिस्सा थी, जिसने वो खबर कवर की थी जब बुरहान को सुरक्षा बलों ने मार गिराया गया था, लेकिन यहां बुरहान किस्सों में जिंदा है। इधर की उधर से नाखुशी न जाने कितनी जानों को लील चुकी थी, जिसका हल फिलवक्त तो दूर तलक भी निकलता नहीं दिख रहा। कश्मीर कोयले का वो टुकड़ा है जो जरा सी हवा देते ही सुर्ख होने लगता है, इसकी कई कहानियां शेष भारत में गुमनाम हैं।

जारी है...  

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