पाकिस्तान के वो 3 गांव, जो अब भारत के साथ हैं!

Photo Credit: तुर्तुक

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NEWSMAN DESK

भारत के सबसे उत्तरी छोर पर हिमालय की काराकोरम शृंखलाओं के दामन पर बसा है खूबसूरत गांव तुर्तुक। साढ़े तीन सौ की आबादी वाले तुर्तुक गांव की सुबह भी कुछ वैसी ही होती है, जैसे उच्च हिमालयी गांव की अलसाई सुबह शर्माते-बलखाते हुये आती है और उसकी नजाकतें हमारी अलसाई देह को उठने पर मजबूर कर देती है। स्कूल जाते बच्चों की चहचहाहट, खेतों के मुंडेरों से गुजरती मदमस्त घंटियों को बजाती हुई गायों का झुंड। खेतों में पानी छोड़ते मर्द और ओंस लगे पेड़ों से खुबानी-आड़ू झाड़ती औरतें। जो थोड़ा अलग था वो था नदी के पार पश्चिम की ओर अकड़ में खड़ा एक पहाड़। जिसके पीछे हर शाम तुर्तुक का सूरज छिपता और पहाड़ के ऊपर बैठे पाकिस्तानी चेकपोस्ट से गांव की ओर झांकती ‘एलएमजी’। जिसकी परवाह अब न तुर्तुक के बच्चों को थी और न किसी भी आम गांववासी को।

तुर्तुक गांव कभी बाल्टिस्तान रियासत का हिस्सा था। तुर्तुक ही नहीं, उसके आस-पास के सभी गांव मसलन त्यासी और चालुंगा भी इसी रियासत का हिस्सा थे। देश की आज़ादी के बाद जम्मू कश्मीर रियासत के भारत में विलय होने के बावजूद ये इलाका पाकिस्तान के हिस्से चला गया था, लेकिन 1971 के युद्ध में भारत ने इस खूबसूरत इलाके को वापस पा लिया। तब से यहां के बाशिदें भारत में हैं। यब्गो वंश के सबसे पहले राजा सारेल गजाली के वंशों ने यहां पर 18वीं सदी तक राज किया। कई हमले झेले और कई बार जीते भी। सेंट्रल एशिया के तुर्किमनिस्तान से आये यग्बो वंश ने बाल्टी समाज की नींव रखी। इसकी सीमाएं लेह लद्दाख से लगभग 250 किलोमीटर ऊपर नुबरा वैली से कुछ आगे स्यॉक नदी के किनारों से शुरू होकर पाकिस्तान प्रशासित गिलगिट-बाल्टिक तक जाता था। 

14 अगस्त की शाम को हम तुर्तुक पहुंचे तो गुलाम हुसैन हमारे स्वागत में पहले से सड़क किनारे खड़े थे। उन्होंने हमें और हमने उन्हें सलाम किया। चालीस साल के गुलाम हुसैन ने लपक कर हमारा सामान उठा लिया। हमनें उन्हें मना किया, लेकिन वो नहीं माने। सड़क से बीस मिनट की खड़ी चढ़ाई के बाद हम तुर्तुक गांव के सदर इलाकों में पहुंचे। वहां गुलाम ने अपने घर की ऊपरी मंजिल में हमारे रहने की बेहतरीन व्यवस्था की हुई थी। जहां हमें अगले दो दिन रुकना था। हम गुलाम से ज्यादा उसके पिता इब्राहिम से मिलने के लिए लालायित रहते थे। हाजी इब्राहिम की उम्र 86 साल है। जब हम घर पहुंचे तो इब्राहिम नमाज पढ़ने गये हुए थे।

हमें चाय पीने को दी गई। दालचीनी और अदरक डली हुई चाय मैंने यहीं पहली बार पी। हम सुस्ता ही रहे थे कि हमारे खाने का इंतजाम होने लगा। गुलाम हुसैन तीन किलो का जिंदा जंगली मुर्गा हमारी खुराक के लिए ले आये, जिसे पूरा परिवार मिलकर बनाने में जुट गया। ये एक शानदार और यादगार शाम की तरह आज भी मेरे जेहन में दर्ज है। देर शाम साढ़े सात बजे इब्राहिम छड़ी के सहारे हमारे कमरों के बाहर आये और उन्होंने हमारा माथा प्यार से चूमा। शायद, यहां ऐसे ही बुजुर्ग प्यार से दुआ देते हों।

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हमने हाजी इब्राहिम से कुछ सवाल पूछे। उन्हें बताते वक्त बुजुर्ग इब्राहिम अतीत के बीते रास्तों पर कहीं खो गये। वो हमें अपने साथ 1947 के उस दौर में ले गये जब उनके गांव को मालूम चला कि अब वो पाकिस्तान का हिस्सा हैं। गांव के कई परिवारों ने जश्न मनाया कि वो अब एक मुस्लिम देश का अभिन्न हिस्सा होंगे, लेकिन अगले दस सालों में पाकिस्तानी फौज ने उन्हें अहसास करा दिया कि धर्म के नाम पर बने देश अगर जन्नत होते तो हर ओर खुशहाली होती। इब्राहिम बताते हैं, चालुुंगा तक पाकिस्तान का हिस्सा था। वो हर दिन आते और हमारे साथ मनमानी करते। हमारे घरों में घुस जाते। हम उन्हें बताते कि हम और तुम एक ही धर्म के हैं, लेकिन वो हमारे साथ खुन्नस रखते। मालूम नहीं क्यों जनाब। ये सब बोलने के बाद इब्राहिम कुछ खामोश हो जाते हैं।

अगले दिन हम यब्गो वंश के अंतिम राजा मोहम्मद खान काचू के महल पहुंचते हैं, जो सबसे ऊंचाई पर बना है। काचू बताते हैं कि, हमारे वंश का यहां तुर्तुक में बहुत बड़ा महल था। सैकड़ों साल तक हमारे पूर्वजों ने इस हजारों किलोमीटर क्षेत्रफल पर राज किया। 1947 के बंटवारे के बाद मेरे दो भाई पाकिस्तान के गिलकिट-बाल्टिस्तान चले गये। वहां भी हमारे महल थे। मेरा परिवार पाकिस्तान के इस हिस्से में तुर्तुक के महल में रहने लगे। हमने सोचा पाकिस्तानी हुकूमत हमें सम्मान देगी, लेकिन हुआ इसके उलट। तुर्तुक के महल को पाक फौज ने कब्जा लिया और नार्दन फ्रंटियर का मुख्यालय बना दिया गया। हम बेघर हो गये थे। कई सालों बाद मैंने पाकिस्तान के सुप्रीम कोर्ट में अर्जी दाखिल की। उसके कुछ साल बाद हमारे पक्ष में फैसला आया और पाक फौज को मेरा महल खाली करने का आदेश हुआ।

इससे पाकिस्तान की फौज तिलमिला गई और उसने आरडीएक्स लगा कर मेरा महल उड़ा दिया! वो एक लंबी सांस लेते हैं और फिर आगे कहते हैं- 'जनाब फिर 12 दिसंबर 1971 को वो दिन आया, जिसका शायद हम सभी को इंतजार था। हम सोये हुये थे। धमाकों की आवाज तेज होने लगी और बाहर गोलाबारी शुरू हो गई। हम घरों के पीछे बने हुये बंकरों में चले गये। कुछ दिन वहीं रहे। लगभग 15 दिन बाद हम वापस आये तो पता चला कि हमारे गांव में भारत का कब्जा हो चुका है। हम इतने डर गये कि लगा अब हमारा अंतिम वक्त आ गया है। हिन्दुओं की सेना हमें मार देगी।

डरते-डरते हम अपने घरों तक पहुंचे। पूरा गांव सोच रहा था कि हम किसी तरह पाकिस्तान भाग जायें। इसी दौरान सेना के एक बहुत बड़े अधिकारी हमारे गांव आये। हम सभी को पोलो ग्राउंड में बुलाया गया। हमें लाइन में लगने को कहा गया। हमें लगा कि हमें गोली मारी जायेगी। इतने में सेना का एक ट्रक आया और उससे बच्चों के लिए बिस्कुट और हमारे लिए राशन उतरने लगा। हमें पहले विश्वास नहीं हुआ। सोचा जहर न हो। इसलिए बच्चों को खाने से रोका। सेना के उस अधिकारी ने हमारे बच्चों को पुचकारा और एक बिस्कुल खुद खाया। फिर हम भी खाने लगे। 

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मोहम्मद खान काचू आगे बताते हैं, पाकिस्तान की सेना ने हमारे आशियाने तक उजाड़ दिये थे, लेकिन जब से भारत की सेना ने कब्जा किया तब से स्थितियां ठीक हैं। अब हमारे पास पक्की सड़क है, अस्पताल है। हमारे बच्चे सरकारी नौकरी कर रहे हैं।। इतने में बीच में ही गुलाम हुसैन बोल पड़ा, जनाब मैं खुद सर्व शिक्षा अभियान के तहत सरकारी स्कूल में अध्यापक हूं, हालांकि हमारे गांव के बच्चे सेना की ओर से बनाये गये मिलिट्री पब्लिक स्कूल में पढ़ना ज्यादा पसंद करते हैं। पहले मेरे बच्चे मदरसे में पढ़ते थे। अब तीनों पब्लिक स्कूल में पढ़ रहे हैं। तभी उसने एक बच्चे को बुलाया और बच्चा झट से अंग्रेजी की एक कविता सुनाने लगा। सब हंसने लगे। स्थानीय लोगों ने बताया अभी 10 अगस्त को गांव में पोलो टूर्नामेंट हुआ, जिसके लिए सेना ने तीन लाख रुपये नगद दिए। 

मैंने गुलाम हुसैन के साथ खड़े चार-पांच युवाओं से पूछा, शेष कश्मीर के लोग पाकिस्तान के साथ शामिल होना चाहते हैं? आप लोगा क्या उनका समर्थन करते हैं? उनमें से एक बोला, जनाब हम पाकिस्तान की हुकूमत में लगभग 30 साल रहे। हमें पता है हकीकत क्या है। इन्हें नहीं पता। लिहाजा, आंखों पर पट्टी बांध कर लड़ रहे हैं। हम तो भारत की सेना का पूरा समर्थन करते हैं। इसलिए हमारे गांवों की सीमाओं पर कभी गोलाबारी भी नहीं होती। यहां के लोगों को दुख इस बात का है कि जब हम अपने ही देश के दूसरे हिस्सों में जाते हैं, तो हमें भी श्रीनगर या अन्य आतंक प्रभावित इलाकों के बाशिंदों की तरह समझा जाता है, जबकि हम यहां शांति से रहते हैं।

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