दीप भट्ट सिनेमा को जीते हैं! जवानी के दिनों में मायानगरी मुंबई की गलियों में भटकते हुए दीप ने सिनेमा की कई शख्सियत का सानिध्य हासिल किया। फिर पहाड़ों पर चले आए और हिन्दुस्तान अखबार का दामन पकड़ा और फिर वो भी इस मस्तमौला आदमी ने छोड़ दिया। अब हिलांश पर सिनेमा के किस्से बिखेर रहे हैं।
सागर सरहदी प्रतिरोध के सिनेमा की आखिरी आवाज थे। यथार्थपरक जमीन पर 'बाजार' जैसी फिल्म बनाकर उन्होंने इसे साबित भी किया। इसी कड़ी में रामजनम पाठक की कहानी पर 'चौसर' जैसी फिल्म का निर्माण और निर्देशन कर उन्होंने इसे दोबारा साबित किया कि उनके सीने में अर्थपूर्ण सिनेमा के लिए आज भी वैसी ही आग है, जैसी तब थी जब उन्होंने सरहद पार से हिन्दुस्तान की सरजमीं पर कदम रखा था। उनसे इतनी मुलाकातें हैं कि उनके व्यक्तित्व के किस आयाम पर चर्चा करूं और कहां से शुरूआत करूं समझ नहीं पड़ता। दरअसल सागर साहब बेहद हंसमुख और एकदम खरे ढंग से बात करने वाले फिल्मकार थे।
यश चोपड़ा के लिए उन्होंने 'कभी-कभी', 'सिलसिला', 'नूरी' जैसी फिल्मों का निर्माण किया। यूं समझ लीजिए कि वो सागर साहब की लेखनी ही थी जिसने यश चोपड़ा की रोमांटिक और जादुई फिल्मों को 70 एमएम पर बादशाह बना दिया। एक मुलाकात में उन्होंने कहा था कि यार रोमांस-रोमांस और इसके सिवा कुछ नहीं इससे मैं उकता गया हूं। मैं तो मर जाऊंगा अगर यही करता रहा जिन्दगी में। उनकी यह तड़प उन्हें 'बाजार' के निर्माण की ओर ले गई। वह 'बाजार-दो' का निर्माण भी करना चाहते थे, पर यह फाइनेंस की समस्या और दूसरे कारणों के चलते कभी मुमकिन नहीं हो सका। अपने आखिरी दौर में वह मुंबईया कॉमर्शियल सिनेमा की दुर्गति से बहुत पीड़ित थे और चाहते थे कि इसका कोई वैकल्पिक सिस्टम स्थापित कर नए जमाने की समस्याओं और इसकी पेचीदगियों को लेकर नए सिनेमा का निर्माण किया जाए पर उनकी यह मंशा कामयाब नहीं हो सकी। इसके बहुत सारे कारण रहे हैं।
हर मुलाकात में सागर साहब से कुछ न कुछ दिलचस्प बातें होती थीं या आपसी संवाद के दौरान कुछ न कुछ ऐसा रोचक निकलकर आता था, कि उसमें उनके कद्दावर व्यक्तित्व की झलक तो मिलती ही, पर वह वाकया इतना दिलचस्प होता था कि उससे अपने जीवन के लिए भी रिफरेंस निकलकर आता था।
मसलन यश चोपड़ा की ही एक फिल्म की शूटिंग के दौरान हुआ यह कि किसी शॉट को फिल्माने के लिए यश जी ने सागर सरहदी से राय ली और सागर साहब ने शॉट किस तरह फिल्माया जाए इस पर अपना नजरिया बता दिया। यश चोपड़ा साहब को ऐसा लगा कि सागर साहब शॉट आइडियोलॉजिकली बता रहे हैं। उन्होंने इस पर ऐतराज जताया। इस पर सागर साहब नाराज हुए और यश जी से कहा कि अगर फिल्म बनाना नहीं आता तो कुछ और धंधा शुरू करें, बेजा वक्त बरबाद करने से क्या फायदा! सागर साहब शूटिंग छोड़कर घर पहुंच गए। बाद में यश जी ने फोन कर उन्हें बुलाया और शॉट उसी ढंग से फिल्माया गया जैसा सागर साहब ने कहा था।
सागर साहब ऐसे कई दिलचस्प किस्से सुनाया करते थे। ऐसा ही एक दिलचस्प किस्सा उन्होंने जाने-माने अभिनेता राजकुमार के बारे में सुनाया था। उन्होंने बताया था कि निर्माता निर्देशक राम माहेश्वरी की फिल्म 'चंबल की कसम' की पटकथा उन्होंने लिखी थी।
राजकुमार उसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे थे। हुआ यह कि राजकुमार ने सरहदी साहब को पटकथा सुनने के लिए अपने जुहू वाले बंगले-विजपर्स विंग में शाम पांच बजे का समय दिया और वे पहुंचे शाम के सात बजे। सरहदी साहब के साथ एक पैग पीने के बाद राजकुमार साहब ने कहा 'जॉनी सुनाईए'।
सरहदी साहब ने पटकथा और संवाद सुनाने शुरू किए तो अचानक राज कुमार ने कहा- 'जॉनी फिल्म में ये छोकरी कौन है!' जाहिर है जिसे वो छोकरी कह रहे थे वो अभिनेत्री मौसमी चटर्जी थीं। राजकुमार को मौसमी चटर्ची के लंबे और अपने छोटे संवादों पर ऐतराज था।
जब सागर साहब से उन्होंने छोकरी के बारे में पूछा तो उन्होंने जोश में आकर कहा कि वो छोकरी नहीं किरदार है। फिर कहा कि अगर डॉयरेक्टर डायलॉग छोटा करने के लिए कह देंगे तो कर देंगे। इस पर राजकुमार ने कहा कि डायरेक्टर कौन है, तो सागर सरहदी ने जवाब में कहा राम माहेश्वरी। इस पर राजकुमार ने अंजान बनते हुए कहा ये कौन है और सागर साहब को सीधे दफा हो जाने को कहा। सागर सरहदी साहब ने बताया कि उन दिनों उनके पास एक पदमिनी फिएट कार हुआ करती थी। रात काफी हो चुकी थी सो उस रात भूखा ही सोना पड़ा।
दूसरे दिन जब सेट पर बैठे थे तो पीछे से आकर किसी ने अपने हाथों से उनकी आंखें बंद करते हुए कहा बताओ कौन। उन्होंने जैसे ही पीछे मुड़कर देखा तो राजकुमार पीछे खड़े थे और बोले- 'जॉनी माना कि आप काफी हसीन हैं, पर हम भी कम हसीन नहीं, कल हम आपका इम्तहान ले रहे थे।' सागर साहब इस किस्से को सुनाते हुए भी राजकुमार के प्रति कटु नहीं थे। उन्होंने बड़े अदब से कहा था- 'वे हमारे सीनियर थे। उर्दू शायरी के बड़े उस्ताद थे राजकुमार साहब।'
सागर सरहदी साहब की एक सबसे बड़ी बात यह थी कि उनके घर की लाइब्रेरी देखने लायक थी। सायन में उनके घर में मैं वह लाइब्रेरी देखकर चौंक गया था। हजारों किताबें फिल्म और साहित्य पर। और सारी किताबें बड़े तरतीब से रैक पर रखी हुई थीं। एक सिरे से देखना शुरू करो तो आखिरी सिरे तक पहुंचना बड़ा मुश्किल था। वह फिल्म इंडस्ट्री के सबसे ज्यादा पढ़ने-लिखने वाले लोगों में थे। मैं समझता हूं ख्वाजा अहमद अब्बास के बाद वे दूसरे ऐसे व्यक्ति थे जो हिन्दी और उर्दू जुबान के इतने बड़े जानकार थे।
सागर सरहदी साहब का मजाकिया अंदाज जो एक बार देख-महसूस ले तो उन्हें भुलाना नामुमकिन होता था। एक बार में मुंबई साल में दो बार गया और दोनों बार उनसे मिलना हुआ। दूसरी बार जब लोखंडवाला के पास सिटी मॉल से पहले चंद्रगुप्त बिल्डिंग में उनसे मिलने उनके दफ्तर में गया तो उन्होंने मुस्कराते हुए कहा कि क्या मुंबई का वीजा मिल गया है तुझे। दूसरी बार मुंबई पहुंच गया। क्या लाया है मेरे लिए हल्द्वानी से, खाली हाथ चला आया। मैं भी मुस्करा दिया। इसके बाद बोले चाय पिएगा, मैंने कहा जरूर पियेंगे।
ऑफिस में कोई दूसरा व्यक्ति नहीं था। खुद ही इलेक्ट्रिकल कैटल में चाय बनानी शुरू कर दी। वह कभी-कभी के जमाने से लंदन में अलग्रे चाय पीने के शौकीन बन चुके थे। इसलिए उनके ऑफिस में हमेशा अलग्रे चाय का डिब्बा मौजूद रहता था और वहां आने वाले हर व्यक्ति को वह वही चाय पेश करते थे।
जिन लोगों से उनकी विशेष मुहब्बत होती थी उसे वह अपने एक खास अंदाज में एक नान वेज गाली देते थे। वह उनके प्यार की जुबान होती थी। मैं उन्हें अपने फिल्मी हस्तियों से मुलाकात के तमाम किस्से सुनाया करता था और वह सुनते रहते थे। एक दिन जब मैं किस्सा सुनाने लगा तो उन्होंने फौरन उस नॉन वेज गाली का प्रयोग करते हुए कहा- 'तू बोलता बहुत अच्छा है, लिख इन किस्सों को नहीं तो एक दिन मर जाएगा इन किस्सों को सुनाते-सुनाते।' मैंने उनकी इस बात को एक सीख की तरह लिया और अपनी पहली पुस्तक 'हिन्दी सिनेमा के शिखर' भेंट की तो बहुत खुश हुए।
राजेश खन्ना के साथ एक बेमजा मुलाकात का जिक्र करते हुए जब मैंने उन्हें एक किस्सा सुनाया तो उन्होंने कहा, 'तुझे मालूम है कि मेरे ऑफिस के पास ही किसी की बर्थ डे पर वह आया था तो कितनी लंबी लाइन लगी थी? पुलिस बुलानी पड़ी थी वहां, लोग उसकी एक झलक पाने को बेकाबू थे।'
स्त्रियों लिए उनके दिल में था सम्मान
इसे यूं भी कह सकते हैं कि औरत जात से उन्हें बहुत प्यार था। सागर सरहदी साहब ने कभी शादी नहीं की। एक बार उनसे पूछा तो बोले - 'यार मुझे इस रिश्ते पर कभी विश्वास नहीं रहा। पति-पत्नी के एक समय बाद चेहरे एक से हो जाते हैं। भाई-बहन की तरह। इस बंधन में मेरा कतई यकीन नहीं।' वो जिन्दगी भर अकेले रहे। निर्देशक रमेश तलवार और उनके बच्चे उनकी सेवा-टहल करते रहे।
उनकी मजाक के किस्से थमने का नाम नहीं ले रहे। एक दिन उनके ऑफिस में कैलाश आडवाणी बैठे थे। उन्हें भी एक प्यार भरी गाली देने के बाद मुझसे बोले - 'दीप इसे डायरेक्टर बनने का शौक चढ़ गया है।' राजकपूर साहब के बारे में भी उनकी एक खास टिप्पणी की मुझे याद आ रही है। बोले, ''फिल्म 'आग' में राजकपूर के सीने में आग नजर आई थी। उसके बाद वह बड़े आदमी बन गए। रात को देर से सोते थे और अगले दिन दोपहर को उठते थे। बाद में लड़कियों को ठंडे पानी से नहलाने लगे। बड़े आदमी थे, किसी तरह इज्जत बचाकर ले गए।'
सागर सरहदी साहब ने टेलीविजन के परदे का भी भरपूर इस्तेमाल किया। उनका निर्देशित किया धारावाहिक 'मेरी यादों के चिनार' बड़ा लोकप्रिय हुआ था। 'नूरी' फिल्म की शूटिंग के दौरान का एक किस्सा सुनाते हुए बोले-फिल्मों में सिनेमैटोग्राफर फिल्म निर्देशक से शॉट से पहले कैमरा कहां रख दूं जरूर पूछता है। 'नूरी' के कैमरामैन ईशान आर्या थे। जैसे ही इशान ने पूछा सरहदी साहब कैमरा कहां रखना है तो मेरे मुंह से निकला रख दे यार किसी साफ सुथरी जगह पर। सागर साहब ने कमाल की फिल्में लिखीं, कमाल की फिल्में निर्देशित की और नवाजुद्दीन जैसे एक्टर को 'चौसर' फिल्म में मेन लीड में रखा।
'चौसर' का प्रीमियर उन्होंने ईरोज में रखा था और मुख्य अतिथि महान पेंटर एमएफ हुसैन थे। फिल्म समर्पित भी उन्हीं को की गई थी। उस प्रीमियर के दौरान उन्होंने मेरा परिचय हुसैन साहब से कराया और हम तीनों ने वह फिल्म साथ ही देखी। सागर साहब बेहद जिंदादिल और एकदम साधारण इंसान थे। उन्हें इतने बड़े पटकथा लेखक और डायरेक्टर होने का कतई कोई अहंकार नहीं था। कोई भी आदमी कभी भी उनके ऑफिस में बगैर एपॉइंटमेंट के उनसे मिल सकता था। उनके निधन से फिल्मों के उस सुनहरे दौर के एक बड़े सितारे का अंत हो गया है।
Leave your comment