अजीत राय को हम सीनियर कल्चर जर्नलिस्ट और आर्ट क्रिटिक बतौर भी जानते हैं और नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा में मीडिया टीचर के बतौर भी। मुख्यधारा के मीडिया में जब सिनेमा पर सतही रपट नजर आती हैं, तब अजीत हमें सिनेमा की दूसरी दुनिया से परिचित करवाते हैं। वो सही मायनों में सिनेमा को बारीकी से जानते हैं।
मिस्र के 'अल गूना फिल्म फेस्टिवल' में दिखाई गई अरब देशों की फिल्मों में स्त्रियों की विलकुल नई छवियां उभरती हैं। ये छवियां मुस्लिम देशों में औरतों की बनी-बनाई छवियों से बिल्कुल अलग हैं। 'वेनिस फिल्म फेस्टिवल' में तीन अवॉर्ड पाने वाली मिस्र के सबसे चर्चित फिल्मकार मोहम्मद दियाब की नई फिल्म 'अमीरा', मिस्र के ही उमर अल जोहरी की 'फेदर्स', लेबनान की महिला फिल्मकार मौनिया अकल की 'कोस्टा ब्रावा, लेबनान' और एली डाघर की 'द सी अहेड' तथा इस साल कान फिल्म फेस्टिवल के मुख्य प्रतियोगिता खंड में चुनी गई मोरक्को के नाबिल आयुच की 'कासाब्लांका बीट्स' जैसी फिल्मों का उदाहरण दिया जा सकता है।
इन फिल्मों में आजाद ख्याल औरतों की ऐसी बनती हुई दुनिया है, जो अपनी पहचान और सपनों को लेकर सचेत हैं और उन पर मजबूती से टिकी हुई हैं। इन फिल्मों की पटकथा में पर्यावरण की तरह राजनीति की परतें हैं। इनमें अरब दुनिया की आज की सच्चाई है, जिसकी ओर बाहरी दुनिया का ध्यान कम ही जाता है।
इस तरह शुरू हुआ अल गूना फिल्म फेस्टिवल
तुर्की के पत्रकार नीलूफर देमिर की खींची हुई तस्वीर ने मिस्र के एक बड़े और पुराने ईसाई उद्योगपति नागीब साविरिस और उनके छोटे भाई समीह साविरिस को इतना विचलित कर दिया कि उन्होंने शरणार्थियों के लिए एक टापू खरीदने का मन बनाया। वह तस्वीर सीरिया के युद्ध से भागकर अपनी मां और भाई के साथ यूरोप के रास्ते कनाडा जाते हुए भूमध्यसागर में डूबकर 2 सितंबर 2015 को मर गए तीन साल के अलान कुर्दी नामक बच्चे की थी। उसे तुर्की के ब्रोदुम समुद्र तट पर मृत पड़ा हुआ देखा गया था।
दिल दहलाने वाली यह तस्वीर सोशल मीडिया में वायरल हुई थी। साविरिस ब्रदर्स किन्ही कारणों से टापू तो नहीं खरीद पाए, पर 22 सितंबर 2017 को मिस्र की राजधानी काहिरा से 445 किलोमीटर दूर रेड सी के किनारे बसाए गए अपने निजी शहर अल गूना में अरब दुनिया का सबसे महत्वपूर्ण फिल्म फेस्टिवल जरूर शुरू कर किया। उनका मानना था कि धीरे-धीरे सिनेमा अरब दुनिया को बदल देगा।
अरब सिनेमा में मिस्र के मोहम्मद दियाब की फिल्म '678' से मशहूर हुई अभिनेत्री बुशरा रोजा ने जब उन्हें 'अल गूना फिल्म फेस्टिवल' का आइडिया दिया तो वे तुरंत मान गए। तब किसी को भी इस बात का अंदाज़ा नहीं था कि महज पांच साल में ही यह अरब दुनिया का सबसे प्रतिष्ठित फिल्म समारोह बन जाएगा। इसकी वजह है फिल्मों की गुणवत्ता, मानवीय सरोकार, विचारों की आजादी और मार्केटिंग। बुशरा रोजा अगले साल अमिताभ बच्चन को सपरिवार आमंत्रित कर उनकी फिल्मों पर यहां एक विशेष कार्यक्रम करना चाहती है।
मिस्र में अमिताभ बच्चन के प्रति पागलपन की हद तक दीवानगी है। वे इसे अरब दुनिया का 'कान फिल्म फेस्टिवल' बनाना चाहती है, जहां सिनेमा केवल रेड कार्पेट और पार्टियों में सिमटकर न रह जाए। सिनेमा के माध्यम से दुनिया की गंभीर समस्याओं पर चर्चा होनी चाहिए। 'अल गूना फिल्म फेस्टिवल' के कारण अरब और इस्लामी दुनिया के प्रति लोगों का नजरिया बदला है।
मिस्र में दो चीज़ें सबसे महत्वपूर्ण है। गिजा के पिरामिड और नील नदी, लेकिन सिनेमा की दुनिया के लिए सबसे महत्वपूर्ण नाम है- ओमर शरीफ। मिस्र के महान अभिनेता ओमर शरीफ ने हॉलीवुड में डेविड लीन की दो बड़ी फिल्मों में काम किया है। 'लारेंस आफ अरेबिया' (1962) और ' डा जिवागो' (1965) जैसी फिल्मों में मुख्य भूमिकाएं निभाने के कारण दुनिया भर में ओमर शरीफ को याद किया जाता है।
अल गूना फिल्म फेस्टिवल में भारत
अरब सिनेमा पर बात करने से पहले थोड़ी चर्चा मिस्र के 'अल गूना फिल्म फेस्टिवल' में भारत की उपस्थिति की। इस बार करीब 12 लोगों का भारतीय प्रतिनिधिमंडल यहां आया हुआ है, जिसमें 'न्यूयार्क इंडियन फिल्म फेस्टिवल' के डायरेक्टर असीम छाबड़ा से लेकर जूरी में शामिल बॉलीवुड के प्रसिद्ध फिल्मकार कबीर खान शामिल हैं। एनएफडीसी की पूर्व प्रमुख नीना लाठ गुप्ता और ओसियान की इंदु श्रीकांत भी क्रमशः स्प्रिंग बोर्ड और नेटपैक जूरी की सदस्य हैं, जबकि रमण चावला मुख्य प्रोग्रामर है।
इस बार भारत की दो फिल्में यहां दिखाई जा रही हैं। आदित्य विक्रम दासगुप्ता की बांग्ला फिल्म 'वंस अपॉन ए टाइम इन कलकत्ता' मुख्य प्रतियोगिता खंड में है। दिल्ली के प्रदूषण पर 'कान फिल्म समारोह' के ऑफिशियल सेलेक्शन में दिखाई जा चुकी राहुल जैन की डाक्यूमेंट्री 'इनविजिबल डेमंस' का यहां विशेष प्रदर्शन किया जा रहा है। इन दोनों भारतीय फिल्मों को यहां के दर्शक बहुत पसंद कर रहे हैं।
'अल गूना फिल्म फेस्टिवल' के निर्देशक इंतिशाल अल तिमिमी कहते हैं कि उन्हें भारत से बेइंतहा मोहब्बत है। मिस्र और भारत के बीच करीब पांच हजार सालों से अनोखा रिश्ता रहा है। वे केरल अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह की जूरी में भी रह चुके हैं। अडूर गोपालकृष्णन, शाजी एन करूण, मणि कौल से उनकी गहरी दोस्ती रही है।
राहुल जैन की फिल्म 'इनविजिबल डेमंस' में दिल्ली और देश में जानलेवा प्रदूषण की समस्या की तह में जाने की कोशिश की गई है। ऐसी भयानक दिल्ली पहली बार सिनेमा में दिखाई गई है। एक ओर भारत को तेजी से विकसित होती अर्थव्यवस्था वाला देश कहा जाता है, तो दूसरी ओर राजधानी दिल्ली के चारों ओर कचरा, कबाड़, गंदगी और बीमारियों का नरक फैलता जा रहा है। दिल्ली में प्रदूषण के कारण अस्सी फीसदी लोगों के फेफड़े हमेशा के लिए खराब हो जा रहे हैं। यमुना नदी गंदे काले नाले में तब्दील हो गई है। एक ओर थोड़ी सी बारिश से हर जगह पानी भर जाता है तो दूसरी ओर पीने के पानी के लिए हाहाकार मचा हुआ है। प्लास्टिक का कचरा खाकर मरती गाएं हैं, तो कूड़े के ढेर पर बच्चे भटक रहे हैं।
आदित्य विक्रम सेनगुप्ता की फिल्म 'वंस अपान ए टाइम इन कलकत्ता' में एक साथ कई कहानियां हैं, जिनमें हर कोई जिंदगी की जंग लड़ रहा है। पति से असंतुष्ट और अलग रह रही अधेड़ अभिनेत्री, चिट फंड कंपनी का एजेंट और उसका मालिक, उजाड़ थियेटर में मृत्यु का इंतजार करता पूर्व अभिनेता, भ्रष्ट व्यवस्था से लड़ता एक इंजीनियर और अंत में सारी लड़ाईयां हारते लोग। फिल्म एक कालखंड की त्रासदी को पूरी कलात्मकता से पेश करती है।
मोहम्मद दिआब, अमीरा और अरब सिनेमा
मोहम्मद दियाब इस समय मिस्र के सबसे चर्चित फिल्मकार हैं, जो उन पटकथाओं को सामने लाते हैं जिनके बारे में पहले कभी नहीं सोचा गया। उनकी पिछली फिल्मों "काहिरा 678" और "क्लैश" में हम यह देख चुके हैं। अपनी नई फिल्म "अमीरा" में इस बार उन्होंने इजरायल की जेलों में बंद फिलिस्तीनी राजनैतिक कैदियों के स्पर्म (शुक्राणुओं) की अवैध तस्करी को विषय बनाया है।
यरुशलम और गाजा पट्टी में जारी फिलिस्तीन-इजरायल संघर्ष के दौरान 2012 से अब तक हजारों बच्चों का जन्म शुक्राणुओं की अवैध तस्करी से हुआ है और वे बच्चे अपने मां-बाप की जायज संतान माने जाते हैं। यह फिल्म अपनी जटिल पटकथा, परिवार और रक्त संबंध की परिभाषा से जुड़ी बहस और विदेशियों के प्रति भेदभाव और नफरत के मुद्दों को उठाने के कारण चर्चा में है।
इजरायल की जेल में बंद एक फिलिस्तीनी आंदोलनकारी नुवार की सत्रह साल की लड़की अमीरा को यह विश्वास है कि वह अपने पिता के तस्करी करके लाए गए शुक्राणुओं (स्पर्म) से पैदा हुई है। वह अपनी मां वारदा के साथ समय-समय पर अपने पिता से जेल में मिलने जाती है और अपने मां-बाप की खुद के साथ फोटो शाप से तैयार फेमिली फोटो देखकर ही खुश हो लेती है। नुवार एक बार फिर अपना शुक्राणु (स्पर्म) तस्करी के जरिए अपनी पत्नी वारदा तक पहुंचाने में सफल होता है। उसे लगता है कि इस तरह शुक्राणुओं के माध्यम से वह जेल से आजाद हो रहा है। जब अस्पताल में इन शुक्राणुओं की मेडिकल जांच होती है तो सबके जीवन में तूफान उठ खड़ा होता है। पता चलता है कि नुवार नपुंसक है और उसके शुक्राणुओं में बच्चा पैदा करने की योग्यता ही नहीं है। परिवार के लोग हर उस आदमी का डीएनए टेस्ट कराते हैं, जिस पर अमीरा के असली बाप होने का शक है। अमीरा का जीवन बिखरने लगता है। उसकी मां वारदा मुंह नहीं खोलती और सब कुछ सहती है। अमीरा हिम्मत के साथ स्थितियों का सामना करती है। उसके परिवार और आसपास इस मुद्दे को लेकर कोहराम मचा हुआ है।
अमीरा को पता चलता है कि एक इजरायली नागरिक उसका जैविक पिता है, जो फिलीस्तीनी मुक्ति मोर्चा के लिए खबरी का काम करता था। उसका प्रेमी उसे सब कुछ भूलकर शादी करने को कहता है। अमीरा का चाचा उसका पासपोर्ट बनवाकर उसे मिस्र में बस जाने को कहता है, लेकिन वह किसी की नहीं सुनती और फेसबुक पर अपने जैविक पिता को ढूंढ लेती है। इजरायली खून होते हुए भी वह सच्चे देशभक्त की तरह एक फिलिस्तीनी की तरह जीना चाहती है और अंत में अवैध रूप से इजरायल की सीमा में प्रवेश करने की कोशिश में वह मारी जाती है।
फिल्म में अमीरा और उसकी मां वारदा जिस साहस के साथ परिवार और समाज का सामना करती है, वह चकित करने वाला है। दोनों में से किसी को कोई अफसोस और अपने किए पर पछतावा नहीं है। वे हिम्मत के साथ इन सब की जिम्मेदारी स्वीकार करते हैं। यदि शुक्राणुओं की तस्करी न हो तो जिन लोगों को हमेशा के लिए जेलों में बंद कर दिया गया है, उनका वंश कैसे चलेगा।
'फेदर्स' और मदर इंडिया
मिस्र के ही उमर अल जोहरी की फिल्म "फेदर्स" को लेकर देश भर में हंगामा हो रहा है। सोशल मीडिया पर राष्ट्रवादी समूह जमकर इसकी आलोचना कर रहे हैं। उनका कहना है कि इस फिल्म से दुनिया भर में मिस्र की छवि खराब होगी।
अपने छह साल के बेटे के जन्मदिन पर आयोजित जादू के शो के दौरान एक तानाशाह आदमी मुर्गे में बदल जाता है। लाख कोशिशों के बाद भी वह मुर्गे से इंसान में तब्दील नहीं हो पाता। उसकी पत्नी मुर्गे के रूप में अपने पति की देखभाल करते हुए बड़ी मुश्किल से तीन छोटे बच्चों को पालती है। एक दिन जिंदा लाश की तरह उसका पति लाचार, संवेदनशून्य और मरणासन्न अवस्था में पाया जाता है। औरत उसकी जी जान से सेवा करती है, पर कोई फायदा नहीं होता और फिर एक दिन वह आजिज आकर मुर्गे को मार देती है। उसका पति अब मर चुका है। शाम को फैक्ट्री का काला धुआं घर में भर जाता है। अगली सुबह वह कहती हैं कि 'रात जा चुकी है और यह मेरी सुबह है।'
फिल्म में महबूब खान की 'मदर इंडिया' की नायिका नरगिस की तरह उस औरत का संघर्ष दिखाया गया है, जिसको पति के गायब हो जाने के बाद अकेले ही बच्चों को पालना है। आस-पास की स्थितियां मैक्सिम गोर्की के नाटक 'लोअर डेप्थ' जैसी हैं, जिसमें गरीबी और अभाव का हाहाकार है।
लेबनान की युवा फिल्मकार मौनिया अकल की 'कोस्टा ब्रावा, लेबनान' में कूड़ा निपटाने में सरकारी भ्रष्टाचार और जीवन की गरिमा के लिए लड़ता एक परिवार है। वालिद बदरी और उसकी पत्नी सौराया एक दिन राजधानी बेरूत को छोड़कर पास के जंगल में बने अपने घर में रहने लगते हैं कि उनके बच्चों को प्राकृतिक माहौल मिले। उसकी मां को सांस की बीमारी है। समस्या तब खड़ी हो जाती है जब सरकार ठीक उनके घर के सामने वाली जमीन को कूड़ा फेंकने की जगह बना देती है। बड़ी बड़ी मशीनों और ट्रकों में रोज शहर का सारा कूड़ा उनके पड़ोस में फेंका जाने लगता है और वे जानलेवा प्रदूषण से घिर जाते हैं। सौराया हिम्मत के साथ इस सरकारी निर्णय का विरोध करती है।
इस फिल्म में सौराया की भूमिका लेबनान की विश्व प्रसिद्ध फिल्मकार नदाइन लबाकी ने निभाई है। लेबनान के ही एली डाघर की फिल्म 'द सी अहेड ' पेरिस का आर्ट स्कूल पीछे छोड़कर अपने शहर बेरूत में अपने मां-बाप के पास वापस लौटी एक उदास औरत जाना की कहानी है। धीरे-धीरे वह पाती है कि उसका अपना प्यारा शहर उसके लिए अजनबी बनता जा रहा है और वह निराशा के गर्त में समाती जा रही है। फिल्म एक जीवंत शहर बेरूत को कई तरह की छवियों में एक चरित्र की तरह दिखाती है।
मोरक्को के नाबिल आयुच की फिल्म 'कासाब्लांका बीट्स' रैप संगीत और हिप हॉप के माध्यम से नौजवानों की कई कहानियों का कोलाज है। कासाब्लांका के एक संस्कृति केन्द्र में अपने जमाने का मशहूर रैप गायक शिक्षक बनकर आता है। वह अपने विद्यार्थियों को नये-नये रैप बनाने के लिए प्रोत्साहित करता है। इस दौरान असली जीवन की कई वर्जित कहानियां सामने आती हैं, जिसमें नौजवान लड़के-लड़कियां यौन शोषण, धार्मिक कट्टरता और सेंसरशिप पर खुलकर अपनी राय जाहिर करते हैं।
फिल्म का अधिकत्तर हिस्सा रैप संगीत है, जिसे डॉक्यूमेंट्री और फिक्शन को मिलाकर बनाया गया है। शिक्षक अपने विद्यार्थियों से कहता है कि अपने दुख, अपना गुस्सा और सारा आक्रोश खुलकर बाहर निकाल दो। कई अभिभावक शिक्षक पर इस्लाम विरोधी होने का आरोप लगाते है। मोरक्को की यह पहली फिल्म है, जिसे इस बार 'कान फिल्म फेस्टिवल' के मुख्य प्रतियोगिता खंड में जगह मिली थी। इन सभी फिल्मों में हम एक नई अरब औरत को देखते हैं, जो पहले से बनी बनाई छवियों से आजाद हैं।
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