डॉ. राजीव रंजन प्रसाद बीएचयू से फंक्शनल हिंदी पत्रकारिता से पोस्ट ग्रेजुएट हैं। भाषा, साइकोलॉजी, सिनेमा और पत्रकारिता लेखन में गहरी रुचि रखने के चलते राजीव के लेख, राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में नियमित प्रकाशित होते रहे हैं। फिलवक्त वह राजीव गांधी विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में सहायक प्रोफेसर हैं। अरुणाचली लोक-साहित्य और मीडिया पर वह अपने कॉलम 'उत्तर-पूर्व' के जरिये वह 'हिलांश' पर नियमित तौर पर लिखेंगे!
(भाग-1) इंडिया के भीतर ऐसे लोगों की कमी नहीं है, जिनके लिये नॉर्थ ईस्ट भारत के बाहर की बात है, ठीक वैसे ही जैसे मराठियों के लिये गैर मराठी मुंबई में 'भार गांव' का नागरिक। अभी बीते दिनों ऐसा ही कुछ उत्तर-पूर्व के अरुणाचल प्रदेश में भी हो गया। लंबे वक्त तक अरुणाचल चर्चा में बना रहा। एक टीनएजर लड़के ने अरुणाचल प्रदेश के एक राजनीतिक प्रतिनिधि को लक्ष्य कर न सिर्फ आपत्तिजनक टिप्पणी कर दी, बल्कि बड़े शर्मनाक तरीके से अरुणाचल प्रदेश के भारत का हिस्सा होने को लेकर मजाक भी बनाया। इसके बाद आई प्रतिक्रियाओं ने पूरे देश में एक नई बहस को जन्म दे दिया कि आखिर किन वजहों से अरुणाचल प्रदेश को लेकर देश का सामान्य ज्ञान इतना गड़बड़ है! हम पूरे राज्य की नागरिकता पर ही प्रश्नचिह्न खड़ा कर देते हैं! आखिर एक देश के भीतर रहकर भी अपने ही देश के दूसरे हिस्सों के नागरिकों को लेकर ऐसी स्थितियां क्यों बन रही हैं और इसका हल क्या है! यही सोचकर हम शुरू कर रहे हैं हिलांश की एक नई सीरीज 'उत्तर-पूर्व'!
मैं पिछले छह साल से अरुणाचल में रह रहा हूं। यहां को लेकर इस तरह की नकारात्मक ख़बरें जब सुनने को मिलती हैं, तब लगता है कि दोष हमारा भी है। वो इसलिये भी कि हम यहां रहते हुए भी, यहां के बारे में शायद खुलकर चर्चा ही नहीं करते हैं। हम किसी को पूरी बात ही नहीं बता रहे हैं और बाकी रहा सवाल राष्ट्रीय मीडिया का तो उसकी नजर में तो दिल्ली से बाहर देश शायद है ही नहीं। दिल्ली से जैसे-जैसे दूर हटेंगे, टीवी के पर्दे से देश ही डीफोकस हो जाता है। चलिये..
वैसे तो पूरे उत्तर-पूर्व की ही हालत नेशनल मीडिया पर खस्ताहाल ही है। अरुणाचल प्रदेश का भी यही हाल है। इसे लेकर खबरें तभी मुख्यधारा की मीडिया में दिखाई देती हैं, जब कोई नकारात्मक वारदात अथवा घटना सामने है। उत्तर पूर्व को लेकर अच्छी बातों का तो मानों 'टोटा' ही पड़ गया हो! 'टोटा' तो समझते हैं ना आप लोग... कमी, हां इसे 'टोटा' कहकर हम काम चला लेते हैं। इस बार भी यही हुआ। एक यू-ट्यूबर ने अपने सोशल मीडिया अकाउंट से जिस तरह की बातें सरेआम कही, उससे नेशनल मीडिया में तो मानो 'तौबा-तौबा' वाली स्थितियां बन गई। बिल्कुल यूट्यूबर की बात सही नहीं है, पर सवाल है कि जो बच्चा अभी विद्यार्थी है, उसे यह कैसे नहीं मालूम कि अरुणाचल प्रदेश एक भारतीय संघ-राज्य है। यहां भी संवैधानिक तौर-तरीके से चुनाव होते हैं और सार्वजनिक मतदान के माध्यम से जनप्रतिनिधि और सांसद चुने जाते हैं।
किरण रिजूजी जैसा मौजूदा लोकप्रिय चेहरा यहीं से निकल कर सामने आता है और गृह राज्यमंत्री की कमान तक संभालता है। नॉर्थ ईस्ट को लेकर जितनी भ्रांतियां हैं, वो दूर हो तों भारत अपने इस खूबसूरत हिस्से के और करीब आ सके। अरुणाचल प्रदेश में 26 प्रमुख जनजातियां रहती हैं। सौ से ऊपर इनकी उप - जनजातियां यहां निवास करती हैं।
विवादों में आया यूट्यूबर ही नहीं, उसके जैसे और कितने सारे बच्चों को यह मालूम है कि अरुणाचल प्रदेश में सूर्य को ‘दोन्यी’ कहा जाता है और चन्द्रमा को ‘पोलो’। दोन्यी-पोलो यहां के प्रकृतिजीवी रहवासियों के लिए 'मां' एवं 'पिता' की तरह हैं। सबसे रोचक तो यह कि सूर्य को यहां 'मां' के रूप में अपनाया गया है। प्रकृति से ऐसा जुड़ाव प्रकृति के करीब की बसावटों का ही संभव है। इसी तरह सर्वशक्तिमान सृष्टिकर्ता को ‘उयू’ कहा जाता है, जो हर एक की भूल-गलती अथवा अच्छाई-सच्चाई का साक्षी है। यहां का जनसमाज अपनी मातृबोलियों में आबो की परम्परा का अनुकरण करता है, जिसे वे अपना पुरखाई पिता कहते हैं। कमाल की बुनावट है यहां के समाज की... उनकी प्रकृति से निकटता का प्रतीक हैं ये रिश्ते।
यहां का समाज खुला समाज है। किसी भी चीज को लेकर बंधन या ‘टैबू’ नहीं है। प्रकृति की तरह अकुंठ और उन्मुक्त यहां के आदिवासी-जनों में एक तरह का पारस्परिक अपनत्व है। वे बिना किसी बनावटी या दिखावटी बेलबूटे का सभी का स्वागत करते हैं और यथासंभव आतिथ्य भी। सर्जना के ऐसे-ऐसे उदाहरण हैं, जो सर्वथा मौलिक हैं। यहां हर वय के लोग कला, शिल्प, दस्तकारी आदि में निपुण हैं। उनका खान-पान प्रकृति की तरह ही हरी साक-सब्जियों पर अधिक निर्भर है।
बांस को खाद्यान के रूप में तरह-तरह से उपयोग में लाया जाता है। मिथुन और याक यहां के महत्त्वपूर्ण पशु हैं। हार्नबिल चिड़िया की बात करें या नाहर के पेड़ और उसके फूल की; अपनी खूबसूरती में अलग रंग घोलते हैं। आर्किड की तो बात ही अलहदा है, जो इस प्रदेश का राजकीय पुष्प है।
लोगों की बात करें तो यहां के लोग बेहद सीधे हैं वो मन में कुछ नहीं रखते, और उन्हें कुछ बुरा लगता है तो वह दिल खोलकर बोलते हैं। यदि वे क्रोध भी करेंगे, तो वह सिर्फ आवेश मात्र होता है; बाद बाकी अंदर कुछ नहीं छुपाकर रखते हैं। लड़कियां-स्त्रियां मैदानी इलाकों की तरह घोर विडम्बना की शिकार नहीं हैं।
विवाह की परम्परा तो ऐसी कि बच्चे सयाने होने पर कई बार लड़का और लड़की सामाजिक रूप से मांगलिक बन्धन में बंधते हैं। अरुणाचल वन, सम्पदा, वनस्पति, नदी, पहाड़, घाटियों आदि से ही भरा-पूरा नहीं है, अपितु यहां का समाज भी आदिवासी इतिहास-बोध, मूल्य-दर्शन, परम्परा-संस्कृति, कला-साहित्य आदि नानाविध वैभव से परिपूर्ण है।
आपकी जानकारी के लिये बता दूं अरुणाचल प्रदेश नाम भारत के संघ-राज्य में बहुत बाद में जुड़ा है। पहले इसे ‘नेफा’ के नाम से जाना जाता था यानी नार्थ ईस्ट फ्रंटियर एजेंसी। असम केन्द्रित देख-रेख और निगरानी में शासन-व्यवस्था के सारे निर्णय लिए जाते थे। आज की तारीख़ में 26 जिले वाले इस राज्य की आबादी लगभग 16 लाख है। यहां के मूल बाशिंदे जितने हैं, उतनी आबादी बाहर से आए लोगों की भी है। गौरतलब है कि इस राज्य को 20 फरवरी, 1987 को पहली बार स्वतन्त्र राज्य का दर्जा मिला।
इस तरह आदिम जनजातियों का यह रहवास क्षेत्र मुख्यधारा की शासन-प्रणाली तथा जनतांत्रिक-व्यवस्था में शामिल हुआ। यह ठीक है कि दूरी के साथ भूगोल एक बड़ा कारण बना कि भारत के मैदानी क्षेत्र का जनसमूह पूर्वोत्तर के राज्य से कटा-छटा मालूम देता है जबकि यहां की खूबियां बेशुमार हैं। कुछ चीजें तो ऐसी हैं जो नैसर्गिक होने के साथ-साथ पूरे भारत के लिए सिरमौर कहीं जानी चाहिए।
जहां सबसे पहले उगता है सूरज
दोंग, अरुणाचल प्रदेश का वह स्थान है जहां सूर्य की किरणें सबसे पहले पहुंचती हैं। लोहित वह क्षेत्र है जहां परशुराम कुण्ड है। तवांग इलाके में 500 साल पूर्व के ऐतिहासिक बौद्ध मंदिर हैं। मालिनीथान वह स्थल है, जहां के बारे में ऐसा कहा जाता है कि कृष्ण और रुक्मिणी यहां कुछ देर ठहरे थे और महादेव से उनकी इसी जगह भेंट हुई थी। संस्कृत के ज्ञाता कल्हण ने इसे उदयाद्रि कहा, तो समाजवादी नेता डाॅ. राम मनोहर लोहिया ने इस क्षेत्र को ‘उर्वशीयम’ कह पुकारा था। इस प्रदेश के राज्यपाल पद पर आसीन रहे महामहिम माता प्रसाद ने अपनी पुस्तक ‘मनोरम भूमि अरुणाचल’ कह इस राज्य का गौरवगान किया है, तो कई कवियों की दृष्टि में ‘अरुण मधुमय यह देश हमारा’ का भाव-बोध घुलामिला हुआ है।
पहाड़ी इलाकों में जंगलों का सफाया कर झूम खेती का चलन
कृषिप्रधान इस राज्य में धान खेती प्रमुखता से की जाती है। ये प्रायः दो तरह से की जाती हैं-पानी खेती और झूम खेती। पहाड़ी-घाटियों के बीच के समतल इलाकों में पानी खेती बहुतायत होते हैं जबकि पहाड़ी इलाकों में जंगलों का सफाया कर झूम खेती करने का चलन है। अरुणाचल के लोग बड़े मेहनती और आलस से कोसों दूर रहने वाले हैं। बहुत छोटे से ही कठिन अभ्यास और परिश्रम करने की आदत पड़ जाती हैं जिसमें स्त्रियाँ और पुरुष ही नहीं, लड़के-लड़कियां भी खूब हाथ बंटाते हैं।
उत्सवधर्मी है अरुणाचली समाज
उत्सवधर्मी अरुणाचली समाज में पर्व-तैयार बड़ी मात्रा में देखने को मिलते हैं। फसल की बोआई से लेकर कटाई तक की यात्रा में कई मौके ऐसे आते हैं, जिन अवसरों पर खास तरह की पूजा की जाती है। यहां आराधना की वास्तविक सत्ता प्रकृति स्वयं है, जिन पर अरुणाचलवासियों की अगाध श्रद्धा है। इन जनजातियों की मातृबोलियों में इतनी विविधता देखने को मिलती है कि एक ही जनजाति के लोग यदि पहाड़ के ऊपर के हिस्से में रहते हों या मध्य वाले हिस्से या कि बिल्कुल तलहटी वाले क्षेत्र में, तो उनकी भाषा एक ही होने के बावजूद पूर्णतया मेल नहीं खाती है।
अलग-अलग नामों से जानी जाने वाली आदिम जनजातियां
आदी, गालो, न्यीशी, तागिन, आपातानी, वांचो, आका,मिजी, मिश्मी, मोम्पा, मेम्बा, खाम्पति, सिंग्फो, मेयोर, शेरर्दुकपेन इत्यादि अरुणाचल की अलग-अलग नामों से जानी जाने वाली आदिम जनजातियां हैं। इन जनजातियों की भाषाएं या कहें मातृबोलियां इनके नाम के आधार पर ही रखे गए हैं। सभी जनजातियों की मातृबोलियों में भारी विविधता देखने को मिलती है।
इस जगह हिन्दी की भूमिका इस प्रदेश में सम्पर्क भाषा के रूप में होती है। हर कोई हिन्दी समझता और बोलता है। हिन्दी गानों, फिल्मों, त्योहारों की यहां धूम है। बाहर से आकर अरुणाचल प्रदेश में नौकरी या निजी व्यापार-व्यवसाय में जुटे लोगों को गैर-अरुणाचली कहा जाता है, जिसे स्थानीय शब्दों में ‘हारिंग’ अथवा ‘न्यीपाक’ कहते हैं। यहां बाहर से आए लोगों से किसी प्रकार का भेदभाव या अलगाव नहीं बरता जाता है। यह सच है कि पहले यहां का आदिवासी समाज बोलचाल में टनकार अथवा कड़क था, लेकिन समय बीतने और शिक्षा के बढ़ते प्रचार-प्रसार के कारण यहां के आदिवासी युवाओं में काफी बदलाव देखा जा रहा है।
मौजूदा दौर की बात करें तो देश के अन्य क्षेत्रों में जिस तरह की सामाजिक-राजनीतिक समस्याएं देखने को मिलती हैं, वह यहां भी शासन-व्यवस्था, राजनीतिक-तंत्र, विभागीय-कार्य आदि में दिख जाएंगी। इसी तरह प्रदेश के युवा बेरोजगार की समस्याए नशीले पदार्थ के सेवन, छिटपुट अपराध आदि में संलिप्त मिल जाते हैं, लेकिन यहां की बस्ती में आज भी सामूहिकता-बोध जबर्दस्त है।
ग्रामीण क्षेत्र का समाज सामुदायिक रूप से बेहद संगठित और ताकतवर है। इस कारण अरुणाचल प्रदेश में बहुत सारी घटनाएं स्थानीय स्तर पर पंचायत के माध्यम से सुलझा ली जाती हैं, जिसे ‘केबांग’ कहते हैं। इसी प्रकार यहां के लोग अपनी पुरखाई परम्परा, रीति-रिवाज, लोक-साहित्य, सामूहिक नृत्य, सार्वजनिक उत्सव आदि के साथ सालों भर अपनी जनजातीय पहचान एवं अस्मिता को जिलाए रखते हैं। आधुनिकता के बढ़ते साजो-सामान और प्रचार-प्रसार चिंताजनक हैं।
तब भी यह आश्वस्ति कही जाएंगी कि यहां का जनसमाज अपने लोक-जीवन में पूरी तरह रचा-बसा है। कई अवसर ऐसे आते हैं जब आदिम सभ्यता के पद्चिह्न दिखाई पड़ते हैं, मसलन कुछ प्रमुख त्योहार अरुणाचल प्रदेश का जनजातीय समाज बड़ी धूमधाम से मनाता है। इनमें आदी जनजाति का सोलुंग, न्यीशी जनजाति का न्योकुम, गालो जनजाति का मोपिन, तागिन जनजाति का सी-दोन्यी, मोन्पा जनजाति का लोसर, शेरदुकपेन जनजाति का लोसर और नोक्टे जनजाति का चाकोलोकू ऐसे उत्सव हैं, जिनके रंग देखते ही बनते हैं। इन त्योंहारों को अलग-अलग वक्त में मनाया जाता है, जिसकी धूम से अरुणाचल की जमीन और खूबसूरत हो उठती है।
इतनी विविधता और बहुलता से पूर्ण अरुणाचल प्रदेश को लेकर यदि अपने ही देश में अजनबीपन की भाषा चलन में दिखाई पड़े, तब यह भारतीयों के लिए गर्व की बात नहीं! इस अजनबीपन को खत्म करने के लिये मैं शिक्षा-प्रणाली में बदलाव को बुनियाद मानता हूं, ताकि इस प्रदेश के हर एक क्षेत्र, वर्ग, समुदाय, धर्म, भाषा, लिंग, कला, शिल्प, साहित्य, स्थापत्य आदि के बारे में बच्चों को सामान्य ज्ञान हो सके। ऐसा होने पर यूट्यूबर जैसे लड़के अपने ही देश की बात करते समय बेहद संवेदनशील तरीके से भारत के हर एक नागरिक का सम्मान करना सीख सकेंगे।
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