हिमालय के वो लोग जो हांक लगाकर पथिक से पूछते हैं- ‘चा-पाणी पी जाओ हो।’

गढ़वाल से कुमाऊंहिमालय के वो लोग जो हांक लगाकर पथिक से पूछते हैं- ‘चा-पाणी पी जाओ हो।’

केशव भट्ट

केशव भट्ट उत्तराखंड के एक हिमालयी कस्बे बागेश्वर में रहते हैं। केशव को ढूंढना बेहद आसान है। बागेश्वर में उनकी एक मिठाई की दुकान है, लेकिन यही उनकी पहचानभर नहीं है! असल में केशव ने लंबे वक्त तक अखबारों के लिए लेखन किया है और इससे भी बढ़कर उन्होंने हिमालय के अलग-अलग हिस्सों को नापा है। केशव का लेखन ताजगी से भरा हुआ है और इससे गुजरते हुए वो आपको अपने साथ हिमालय के दर्रों और घाटियों में चुपचाप लिए चलते हैं। 'हिलांश' पर केशव के किस्सों की एक पूरी खेप आ रही है।

(भाग-4) मार्तोली बुग्याल की मखमली घास पीछे छूटी तो सामने बुरांश के घने जंगल में हम प्रवेश कर गये। अधखिले बुरांश से पूरा जंगल भरा हुआ था। हमें अब भी रास्ते का कहीं ओर-छोर नहीं दिख रहा था। नक्शे के अनुसार हम तलबड़ा या भराकानी गांव की सीमा में कहीं भटक रहे थे। मन में आज गांव में रहने की कुलबुलाहट थी। घंटे भर की यात्रा के बाद आखिरकार हम बंजर खेतों में पहुंचे। अचानक एक दिशा से हमें जानवरों को हांकने की आवाज सुनाई पड़ी, तो लगा कि अब हम किसी बसावाट के करीब पहुंच गए हैं। गांव में रुकने की तमन्ना पूरी होती दिख रही थी और इस खुशी को बयां नहीं किया जा सकता।

बकरियों के झुरमुट को ठेलती बालिका को देख हमने कुछ पूछने की सोची ही थी कि वो लड़की अपनी मां की आवाज सुनते ही तेजी से आवाज की दिशा में दौड़ पड़ी। नीचे पेड़ से चारे के लिए टहनियां काट रही उसकी मां से मैंने नजदीक के गांव के बारे में पूछा तो उस महिला ने पेड़ से ही हमें नीचे को ओर जाने का इशारा कर दिया। शायद हिमालय की गोद में रहने वाले इन बाशिंदों और हमारी भाषा का सही ढंग से तारतम्य नहीं बैठ पाया था। इस बात की मुझे कुछ कोफ्त भी हुई। रास्ते का कोई ठिकाना ना पाकर, हम एक गधेरे के साथ ही उतरते चले गये। कई जगहों में हम सभी को टार्जन सरीखी स्किल्स दिखानी पड़ी। नीम अंधेरा होते-होते आखिरकार हमें रास्ते का दीदार हो ही गया। हम रास्ते के बीचों-बीच चल रहे थे। तलबड़ा, भराकानी गांवों की सीमा से अब हम काफी नीचे आ गए थे। 

कुछ देर असमंजस की स्थिती बनी रही। हमने पहाड़ी के नीचे दिख रहे कुंवारी गांव की ओर ये सोचकर चलना शुरू किया कि रास्ते में कहीं भी टैंट लगा लेंगे। तीखे पहाढ़ के सीने को काट कर बनाया गया रास्ता बेहद संकरा व खतरनाक था। अंधेरे में दूर शंभू नदी के बहने की धीमी आवाज लगातार पास आ रही थी। नदी की इस आवाज के साथ सुर मिला रही थी तेदुंए की गुर्राहट! ये पहाड़ों पर आम बात है।

शाम या फिर अलसुबह तेंदुए की गुर्राहट अक्सर गांवों के करीब सुनाई दे जाती है। यहां तो हमें चलते हुये ही नौ बज गए थे। एक जगह पर दो पहाड़ियों का मिलन होने से वहां कुछ जगह ढलान लिए हुये हमें दिखी। कुंवारी गांव अभी भी हमसे तीन किमी की दूरी पर था। हमने यहीं तंबू लगाने का निर्णय ले लिया था। लगातार तेंदुए की गुर्राहट बढ़ती जा रही थी। वो काफी करीब था। हमने तेजी से ढलान में सुरक्षित ढंग से तंबू तान लिया और उसमें समा गए। तंबू के भीतर घुसते ही हमें सुरक्षा का एहसास मिल चुका था। कुछ देर की बातों और खाने के बाद नींद के आगोश में समाते ही तेदुंए की गुर्राहट भी गायब हो गई।

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जहां हमने रात तंबू लगाया था, वो जगह सुबह होते ही बदल गई। घाटी में कोहरे की चादर बिछी हुई थी और चोटियां धूप से चमक रही थी। सुबह मवेसियों के गले में बंधी घंटियों की टनटनाहट नीचे घाटियों में फैले कोहरे में गूंज रही थी। दो परिवारों के मुखिया भरी हुई बंदूक कंधे में डाले अपने कुनबे के साथ उन्हें हांक रहे थे। हमारे नजदीक आने पर उनके मन में कई तरह के सवाल कौंध रहे थे। मैंने यह बात भांप ली थी। अपरिचित लोगों को देख उनके मन में कई किस्म के सवाल उठना लाजमी था। जब हमने अपनी यात्रा के बारे में उन्हें जानकारी दी, तब कहीं जाकर उनकी जिज्ञासा शांत हो सकी। हमारे रात में यहां रूकने पर वो अचंभित होकर बोल पड़े-  ‘‘बब्बा य बिमदर धार मां तो बाघ रूनी। त्वैमि कसिक रैये यां। हिटो पे हिटो, हमल्ये मलि मार्तोली बुग्याल गोरू-बाछिनों कैं छोड़ ब्यालि तक ओंलू।’’ (बाबा! बिमदर चोटी पर बाघ रहता है। तुम लोग यहां कैसे रुक गये! अब निकलते हैं, हमें मार्तोली बुग्याल में गाय-बछड़ों को छोड़कर कल तक वापस लौट आना है।) 

उन दोनों लोगों से विदा लेकर हम पहाड़ के घेरे से बाहर निकल आये थे। सामने ही कुंवारी गांव की सरहद शुरू हो गई थी। गांव में प्रवेश करते ही हमें सबसे पहले तकली से ऊन कातते हुये विजय राम मिले। उनसे बातचीत शुरू हुई तो उन्होंने पूरे गांव की दशा-दिशा हमारे सामने खोलकर रख दी। उन्होंने बताया कि खुशाल सिंह दानू यहां 53 मवासों के प्रधान हैं। गांव में उपप्रधान केशर सिंह दानू के घर पर ही सेटेलाइट फोन लगा हुआ है, जिससे गांव के बाहर बात हो पाती है। उन्होंने हमें बताया कि साल में दो कुंतल तक भेड़ का ऊन हो जाता है, जिसे कताई कर कंबल, कोट बनाने में वो प्रयोग में ले आते हैं। हमने जब भेड़ के ऊन की कीमत जाननी चाही तो उन्होंने हमें बताया कि उन्हें इसके लिये प्रति किलो मात्र 15 रुपये मिल पाते हैं।

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गांव के अधिकतर लोगों ने अब ऊन कातना कम कर दिया है। गांव के बारे में बताते हुए उन्होंने हमें बताया कि आधे-अधूरे नए बने जूनियर हाईस्कूल में ही बच्चे उधम मचाते हैं। हाईस्कूल का उच्चीकरण नेताओं के भाषणों तक ही सीमित रह गया है, जबकि प्राइमरी स्कूल के दरवाजे बंद ही रहते हैं। गांव में शिक्षा के हालत बेहद खस्ताहाल हैं और जूनियर हाईस्कूल में मात्र परीक्षा संपन्न करवाने के लिये बागेश्वर से आने वाले मास्टर साहब ही प्राइमरी की औपचारिकता भी निपटा जाते हैं। कई मास्टरों की नौकरी इन स्कूलों से दूर रहकर ही चलती रही और कभी वो गांव की ओर आये भी तो सिर्फ खानापूर्ति के लिये।

यहां का नजदीकी बाजार देवाल है, लेकिन यहां तक पहुंचना भी आसान नहीं है। कई गांवों और पहाड़ों को लांघकर ही देवाल पहुंचा जा सकता है। कुंवारी से झलिया, उपथर, चोटिंग, मानमति से खेता तक का पैदल रास्ता है। वहां से मिलखेत, बोरगाड़ होते हुवे देवाल तक कच्ची सड़क है। साल 2014 में ‘खेता’ से जीप वाले देवाल तक पहुंचने के 50 रुपया किराया वसूलते थे। कुंवारी गांव के लोगों को बागेश्वर यहां से काफी दूर पड़ता है, लेकिन उत्तरायणी मेले के मौके पर गांव के लोग बागेश्वर पहुंच ही जाते हैं।

विजय दा एक दिलचस्प शख्स थे और उन्होंने चंद मिनटों में ही पूरे इलाके की सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक स्थिति से हमें अवगत करवा दिया था। उन्होंने इसी बीच हमें भोजन का न्योता दिया था, लेकिन हमने उनसे फिर कभी खिचड़ी चखने का वादा कर विदा ले ली। मुख्य रास्ता टूटा हुआ था। टूटी हुई सिंचाई की गूल (नहर) को ही अब गांव वालों ने रास्ता बना लिया था। गांव का पंचायत घर भैंसों का आरामगाह बन चुका था। रास्ते में सीढ़ीनुमा खेतों में गोड़ाई करती एक बूढ़ी अम्मा ने हमसे अपनी बहू के साथ फोटो खींचने की फरमाइश रखी, जिसे हमें पूरा करना पड़ा। नीचे बाखलीनुमा मकान में दलीप सिंह अपने पोते की अठखेलियों में मस्त थे। उन्होंने हमें देख हांक लगाई- ‘चा-पाणी पी जाओ हो।’ (बैठो, चाय-पानी पी जाओ!) हम उनकी ओर बढ़ चले। हमारे वहां पहुंचते ही उनकी बहू पानी ले आई।

बातों का सिलसिला शुरू हुआ तो पता चला कि दलीप सिंह काफी लंबे अर्से से पेट की बीमारी से जूझ रहे हैं। मंहगाई के डर से वह इलाज करवाने के बजाय वो घर पर ही बैठे रहे। उनका एक लड़का कहीं प्राइवेट नौकरी करता है। उनकी बहू जानकी, बधियाकोट में आशा कार्यकत्री हैं। बीपीएल कार्ड होने के बावजूद भी उन्हें योजनाओं या फिर मिलने वाली सुविधाओं का कुछ पता नहीं था, जो हमारे लिये चौंकाने वाली बात थी। हमने उन्हें बताया कि उनका इलाज मुफ्त ही हो जाएगा। हमने उन्हें जल्दी इलाज शुरू करवाने के लिये कहा और ‘चा’ फिर कभी दोबारा पीने का वादा कर विदा ले ली। हम इन गांवों से गुजरते हुये उस हिस्से के बारे में सोच रहे थे, जिनके पास सबकुछ है, लेकिन शांति नहीं!

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हिमायल के ये जीवंत गांव मानों सिर्फ काम करने के लिये ही बसे हुये हों... सुबह से शाम एक निश्चित दिनचर्या और बेतहाशा काम ही यहां जिंदगी है। विजय दा, दलीप सिंह जैसे न जाने कितने लोग चुपचाप इन गांवों में ही अपनी जिंदगी गुजारकर ​नई यात्रा पर निकल पड़े होंगे... क्या उन्होंने कभी किसी सरकार से अपनी मुश्किलों की शिकायत की होगी... क्या कभी किसी सरकार ने इन लोगों के करीब जाकर हाल-चाल जानने की कोशिश की होगी! शायद नहीं... लेकिन वो उसी जिंदादिली से हांक लगाकर अजनबी तक से जरूर बार-बार पूछते हैं- ‘चा-पाणी पी जाओ हो।’

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